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19 फरवरी 1948 - जब सुकेत विद्रोहियों ने पांगना के किले को ले लिया था अपने कब्जे में -

  • 19 फ़र॰ 2020
  • 5 मिनट पठन

सुकेत विद्रोह का अंतिम चरण - तुलसीराम गुप्ता की कीलम से...


पांगना के एतिहासिक किले में मौजूद महामाया मंदिर - फोटो हिमयात्री

19 फरवरी 48 को लगभग 3000 सत्यग्रही तिरंगा लेकर नारे लगाते हुए बड़े उत्साह से पांगना को निकल पड़े। झंडा उठाने वालों में मैं (तुलसीराम गुप्ता) भी था। मेरी आयु उस समय 11 वर्ष थी। पांगना चौंकी को वहां के सत्यग्रहियों ने पहले ही कब्जा में कर लिया था। एक सिपाही कुंदनलाल ने विरोध किया, जो पहले ही चरित्रहीन था, तो लोगों ने उसकी अच्छी पिटाई की।

वर्षा के कारण लोगों को पांगना में दो दिन तक रुकना पड़ा। उनका खर्चा स्थानीय लोगों ने चंदा इकट्टा करके किया गया। एक समय का खाना सब को श्री जयलाल और हरिशरण ने दिया। राशन खरीदने के लिए 1500 रूपए श्री दाखूराम ने दिये थे। पांगना में लगभग 800 सत्याग्रही इकट्ठा हो गए थे।

इसी बीच देखा गया कि एक घुड़सवार सिपाही करसोग जा रहा है। उसको वहीं पे हिरासत में लेकर पूछताछ शुरू कर दी गई और उसकी तलासी में उसके लंगोट से दो पत्र मिले जो करसोग के तहसीलदार और थानेदार के नाम से थे। उसमें उन्हे विचार विमर्श के लिए सुंदरनगर बुलाया गया था उसे पता नहीं था कि तहसीलदार कैद है, और थानेदार पहले ही भाग गया था।

वर्षा रुकने के बाद 22 फरवरी 1948 को सत्यग्रहियों ने पांगना से सुंदरनगर की ओर प्रस्थान किया गया। निहरी चौकी भी पहले ही कब्जाई जा चुकी थी। उस दिन गर्म मिजाज ला. बोधराज ने कमान संभाली थी।

पांगणा में सदेश मिला की राजा, सुकेत सत्याग्राहियों का सामना करने के लिए पुलिस तथा फौज भेज रहा है। यह समाचार प्राप्त करते ही एक गुप्त मीटिंग बुलाई गई जिसमें प्रमुख व्यक्तियों ने विचार-विमर्श किया और यह निश्चित किया गया कि ऐसी परिस्थितियों में आगे बढञना उचित नहीं अपितू वहीं मोर्चा लेना ठीक है। पांगणा, चारों ओर पर्वतों से घिरा था और वहां सत्याग्राहियों की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध हो सकता था। खुले में सशस्त्र सेना का सामना करने में काफी क्षति उठानी पड़ती। आजाद हिंद सेना के जवानों ने नाकाबंदी प्रारंभ कर दी। काफी बंदूके, गोला-बारुद आदि उनके हाथ करसोग शस्त्रागार में लग गया था। पांगणा में ही इन जवानों ने रियासत के एक जासूस को जो संदिग्ध दशा में घुम रहा था, पकड़ा और उससे बहुत सी योनजाएं उगलवा लीं। पांगणा के चारों ओर हथियारबंद भूतपूर्व सैनिकों का पहरा लग गया। इस प्रबंध से सत्याग्राहियों का जोश बना रहा।[1]

आगे बढ़ने पर चौकी के स्थान पर मिंया रत्नसिंह प्रधान प्रजा मंडल भी सत्यग्रहियों से आ मिले। बढ़ते हुए जब घिड़ी पहुंचे तो पं. छजुराम हलवाई ने सत्यग्रहियों को मिठाई खिलाई , उसने राजा के तीन-चार भेदियों को पकड़ रखा था। उनको साथ लेकर सत्याग्रही आगे बढ़ गए।

जयदेवी में राजा ने अपने तीन-चार कार्मचारी यह संदेश देकर भेजे कि राजा अब रियासत में जनता की सरकार बनाने को तैयार है, और प्रजा के साथ संधि करना चाहते हैं। मगर सत्याग्रही इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा कि पहले रियासत को भारत सरकार संघ में सम्मिलित करने की घोषणा करे, बाद में भारत सरकार के आदेशानुसार ही कोई निर्णय लिया जा सकता है।

जयदेवी वालों ने एक समय का भोजन सब को करवाया बाकी सारा खर्च पांगना वालों ने उठाया। डा. परमार ने सत्यग्राहियों को भारत सरकार का यह संदेश पहुंचाया कि गृह मंत्रालय चाहता है कि आंदोलन रोक दिया जाए। इस संदेश के मिलने के बाद नेताओं ने आपस में विचार विमर्श करके मंडी से गृहमंत्रालय को तार द्वावा सूचित किया कि आंदोलनकारी राजधानी सुकेत से 9 मील दूर रह गए हैं। तीन-चार जगहों पर हमारा कब्जा हो चुका है। आंदोलन शांतिपूर्वक है। अब यहां से वापिस जाना मुश्किल है।

जब काफिला आगे बढ़ रहा था तो सेना ने रोकना चाहा। इसका मुकाबला करने के लिए बने दल में चुराग के ठठारों ने मुख्य भूमिका निभाई थी। चुराग के ठठार एक समय में राजा के लिए हथियार बनाने का कार्य करते थे। पांगना से राजधानी बदली होने के बाद उनके कामकाज में रूकावट आ चुकी थी। फिर भी वह हथियार बनाने में माहिर थे। जब विपदा पड़ी तो सबसे आगे तलवार लेकर ठठार ही चले थे।

इस पर गृहमंत्रालय ने सूचित किया कि श्री गणेश दत्त चीफ कमिश्नर जालंधर और श्री कन्हैयालाल डिप्टी कमीश्नर धर्मशाला को सेना लेकर सुंदरनगर भेज रहे है। आप उनकी प्रतीक्षा कर उनसे मिले।

इसी बीच राजा लक्ष्मण सेन अपने प्राइवेट सचिव श्री सिधूराम को साथ लेकर सत्यग्राहियों को मनाने के लिए जयदेवी आ रहे थे। चांबी में उनकी आपसी बातचीच में श्री सिधूराम ने कहा कि महाराज रांड (विधवा औरत) और प्रजा से माफी मांगना राजा का काम नहीं है, आगे आप स्वयं विचार कर निर्णय लें। यह बात सुनते ही राजा चांबी से ही वापिस हो गये।

25 फरवरी 1948 को सत्याग्रही सुंदरनगर पहुंच गए। अब लगभग 1000 आदियों का समूह इकट्ठा हो गया था। जगह-जगह आजादी के दीवानों ने जलसा-जुलूस करना शुरू कर दिया था। चारों ओर से वालंटियर आने वाले रास्तों तथा सुंदरनगर में जगह-जगह पर वालंटियरों को जिम्मेदारी सम्भला दी गई, जिससे स्थिति पर पूरा नियंत्रण रहे। सत्यग्रहियों के सुदंरनगर पहुंचने का पता चौधरी परसराम (जो अपने को तहसीलदार होते हुए भी गवर्नर कहता था, अब सुदंरनगर मे था) को चला तो उसने अपनी जान बचाने के लिए पागल का ढोंग रचा लिया। ताकि लोग उसके जुल्मों की सजा उसे न दे सके। इस ढोंग के कारण लोगों ने उसे पागल समझकर छोड़ दिया। अन्यथा उसकी हड्डी भी नहीं मिलती। साथ ही वह कहीं जाकर छुप भी गया।

26 फरवरी 1948 को श्री गणेश दत्त और कन्हैय्या लाल भारतीय सेना को लेकर सुंदरनगर पहुंचे उन्होने सत्यग्राहियों से मिलकर राजा की सेना को अपने कब्जे में ले लिया। इस से रियासती सेना और पुलिस ने हथियार डाल दिया। श्री गणेश दत्त ने रियसती फौज को संक्षिप्त भाषण में कहा अब आप रियासत के नहीं अपितु भारत सरकार के सैनिक बन गए हैं। आपको उचित प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसके साथ ही उन्हें नागरिक के कर्तव्य और अधिकारों की जानकारी भी दी।

यह सब होने के बाद सभी सरकारी कार्यालयों पर कब्जा कर चार्ज सम्भालने के काम में सेना के साथ प्रोविजनल सरकार के वालंटियर साथ-साथ रहे। इस प्रकार पूरी रियासत पर कब्जा करके राजा लक्ष्मण सेन को राजकार्य से मुक्त कर दिया गया।

इसके बाद सभी सत्याग्रहियों की एक आमसभा हुई। जिसको पं. पद्मदेव, श्री शिवानंद रमोल, और दूसरे कई नेताओं ने सम्बोधित किया था।

भारत की 538 रियासतों को एक करने का बेड़ा सुकेत रियासत ने उठाया था। जिसके तहसील करसोग रियासत सुकेत तथा अन्य स्थानों से आए सत्याग्रहियों का शांति पूर्वक आंदोलन चलाने तथा भरपूर सहयोग देने के लिए धन्यवाद किया।

उन्होंने लोगों को शांतिपूर्वक अपने कारोबार को चालू रखने की प्रार्थना की। यह भी कहा की हम सभी पहाड़ी रियासतों को इकट्टा करके एक प्रांत बनाना चाहते है। जनता के सहयोग से ही यह सब सम्भव हुआ।

बिलासपुर के अतिरिक्त अन्य सभी रियासतों का समूह 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल प्रदेश के नाम से अस्तित्व में आया।

हिमाचल के अस्तित्व में आने से पहले भारत सरकार ने यहा कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पंजाब पुलिस को भेजा था। मगर उन्होंने यहां आकर वह उधम मचा दिया कि जनता त्राही-त्राही कर उठी। इस लिए शीघ्र ही उन्हें वापिस भेज दिया गया।

आंदोलन का व्ययः-

इस सत्यग्रह को चलाने के लिए ज्यादा सहयोग करसोग के पहाड़ निवासियों ने तथा विशेषकार पांगना निवासियों ने अपना सब कुछ दाव पे लगाकर लगभग तीन-चार लाख रुपए व्यय किया।

बाहर से आए हुए सभी सत्यग्रहियों के सभी प्रकार के खर्चे यहां के लोगों को देने पड़े थे। बिलासपुर से आए हुए सत्यग्रहियों ने खाने के अतिरिक्त कोई खर्चा नहीं लिया।

बड़े-बड़े नेताओं के खर्चे भी यहां के लोगों को वहन करने पड़े।

बाहर से आए हुए सत्यग्रहियों के हम रियासत सुकेत विशेषकर तहसील करसोग की जनता आभारी एवं धन्यवादी है जिन्होंने इस संकट की घड़ी में हमारा साथ देकर उत्साह बनाए रखा। जिससे हमें सफलता मिली।

हम यहां की जनता के भी आभारी है जिन्होंने हर प्रकार की यातनाएं सहते हुए साहस बनाए रखा। और कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ते हुए सफलता प्राप्त किया।

  1. [1] हिमचाल का क्रांतिकारिक इतिहास, पृ.सं. 163


इन तमाम लेखों के लिए अलर्ट हिमाचल व्योवृद्ध तुलसीराम गुप्ता जी का बहुत अभारी है। उन्होंने अपनी पांडुलिपियां हमें प्रदान की जिस के कारण हम करसोग या कहें सुकेत रियासत का क्रांतिकारी इतिहास जान पाए।

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