भूमि सुधारों की असलियत “जिस जंगल को हमने पाला-पोसा बड़ा किया उस पर ही हमारा अधिकार नहीं है।”
- ahtv desk
- 21 दिस॰ 2019
- 3 मिनट पठन
- तेज राम, कांजनू
पहले जमीनों पर अधिकार किसानों का होता था। राजा ने जमीनों पर कर या कहें लगान वसूल करना शुरु कर दिया। परिवार घुमंतू होते थे। एक जगह खेती करने के बाद आगे चले जाते थे। उस समय पाथा चलता था यानी 10 में से 7 पाथा (हिस्से) किसान और 3 पाथा (हिस्से) राजा का होता था। इसको ग्रहाके जमा करके ले जाते थे जो राजा के खजांची बाणी पुत्र खत्री, राणे होते थे, सेन, मिया होते थे। बहुत बार ऐसा होता था कि अनाज या फसल नहीं होती थी, या कम होती थी तो किसान लगान नहीं दे पाते थे। एक छमाही पर नहीं दे पाए तो अगली छमाई पर 6 पाथे देने होते, अगली पर भी न दे पाए तो 9 पाथे देने होते, इस प्रकार साल दर साल राजा का लगान किसानों पर बढ़ता रहता था। वह इतना हो जाता था कि किसान उस लगान को चुका नहीं पाता था। जब फसल अच्छी होती थी तो 10 के 10 पाथे लगान ले जाते थे, जनता में भुखमरी फैल जाती थी।

उस समय राज दरबार में खत्री, गुप्ते, सेन, मिया, यादव आदि जो खजांची होते थे तो वह किसानों को कहते थे चलो कोई बात नहीं, जमीन हमें दे दो, हम आपकी तरफ से राजा का लगान चुका देंगे। इस प्रकार उन्होंने वह जमीनें अपनी अधीन कर ली, हमारी ही जमीन। मानलो जो खत्री या सेन परिवार मंडी में रहता है तो उसकी जमीनें यहां पांगणा, करसोग या अन्य दूर दराज के इलाकों में कैसे हो सकती है, वह ऐसे ही कब्जाई गई जमीनें हैं, दरअसल बहुत लोग यह नहीं जानते जिन जमीनों पर लोग अब खेती कर रहे हैं वह उन्हीं की जमीनें थी।
आजादी के बाद जब 24/48 कानून आया तो यह समझ में आया कि यह जमीनें किसानों की हैं, उनको दी जानी चाहिए। हमने यादवों, खत्रियों, सेनों को कर (लगान) देना बंद कर दिया। सरकार ने कानून बनाया जो जमीन चला रहा है जमीनें उन्हीं को दी जाएं। इस प्रकार किसी तरीके से हमारी जमीनें जो सेन, खत्रियों, गुप्तों के पास चली गई थी वही हमारे पास वापिस आई। असली मालिक खत्री, यादव नहीं थे कर की वजह से उनके पास जमीनें चली गई थी। एक तरीका उन्होंने यह अपनाया था कि जब अकाल पड़ते थे तो राजा के गौदाम में से प्रजा को अनाज बांटा जाता था, और उसके बदले जमीनें ले ली जाती थी, दरअसल वह वहीं अनाज था जो हमने उगा कर उनको लगान के रूप में दिय था। आगे से आगे और जमीनें इक्ठा करते गए। जिस खत्री के पास 50 बीघे जमीन थी उन्होंने हजारों बीघे जमीनें बना ली थी। उन्होंने लगान (कर) से ही हम लोगों को गुलाम बना कर रखा हुआ था।
आजादी से पहले गुप्ते, खत्री, सेन परिवारों पर सारी जमीनें थे वह अभी कुछ करसोग में, कुछ चुराग में, कुछ पांगणा और कुछ मंडी में रहते हैं, उनके पास अभी भी बहुत जमीन हैं। सरकार बनने के बाद (1947 के बाद) लोगों ने मांग रखी की हमारी जमीनें जो खत्रियों, सेन व अन्य परिवारों के पास है उनको वापिस दिलाया जाए। सरकार ने ध्यान दिया, काम किया कानून बनाया। लेकिन जो खत्री, यादव, सेन, गुप्ते परिवार थे उन्होंने स्थानीय किसानों के साथ समझौता कर के आधा-आधा बांट लिया। आपसी सहमती से जमीनों का बंटवारा कर लिया।
मुजारों को कुछ नहीं मिला, जो पहले बाप-दादाओं की थी वही हमारे पास है, जंगल वाले जमीन नहीं दे रहे। सरकार जमीन नहीं दे रही, छोटे-छोटे बच्चे हैं कहां ले कर जाएं उनको। खुद लोगों ने जंगल की जमीन खेती लायक बनाई थी, वह लोगों को नहीं मिली।
गरीब हरिजन लोगों को जमीन नहीं मिल पाई। पहले जब कानून आया तो जमीन देने का पट्टा लेने के लिए पैसे देने होते थे (बचा हुआ लगान, मुआवजा) गरीब लोग नहीं दे पाए तो उनको जमीनें मिली ही नहीं। जो लगान दे पाया उसको जमीन मिल गई थी। सरकार ने नौतोड़ लागू किया तो उसके तहत भी जमीनें अच्छे-अच्छे लोगों को ही मिली, गरीब को नहीं मिली। गरीब, हरीजन बे जमीने लोगों को जमीन नहीं मिल पाई। वह आज भी पट्टे पर काम कर रहे हैं. जिस जंगल को हमने पाला-पोसा बड़ा किया उस पर ही हमारा अधिकार नहीं है।
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