बड़ी परियोजनाओं के लिए जंगल काटो तो विकास – मूलभूत सुविधाओं के लिए पेड़ कटें तो विनाश ?
- 14 फ़र॰ 2020
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वन अधिकार कानून 2006 के मामले में दोहरा रुख अपना रही है हिमाचल सरकार

वन अधिकार 2006 यूं तो हिमाचल प्रदेश में शुरू से ही लागू हो गया है लेकिन सरकार लगातार इस जन हितौषी कानून के अमल करने में इंकार करती रही है और तरह-तरह के हथकंडे अपना कर सरकार ने वनों पर जनता के पारंपरिक अधिकारों को मान्यता प्रदान नहीं की है। हिमाचल प्रदेश के प्रमुख पर्यावरण समूह हिमधारा ने 14 फरवरी 2020 को एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें हिमधारा समूह ने इस बात की जांच की है कि क्या वासत्व में मूलभूत सुविधाओं के लिए वनों के हस्तांतरण से जंगल का नुक्सान हुआ है, क्या बड़ी परियोजनाओं और मूलभूत विकास परियोजाओं के लिए वनों के हस्तांतरण को एक की तराजू में तौला जाना चाहिए।
पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय का वन अधिकार कानून के अंतर्गत दिया गया बेदखली का आदेश रास्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बना रहा । परन्तु पिछले वर्ष ही मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा और दीपक गुप्ता द्वारा गोदावार्मन केस के अंतर्गत हिमाचल के सन्दर्भ में दिया गया वन अधिकार कानून से जुड़ा एक और आदेश सुर्ख़ियों में नहीं आया । 2006 में भारतीय संसद द्वारा पारित वन अधिकार कानून (FRA)की धारा 3(2) के अंतर्गत 13 प्रकार की स्थानीय विकास परियोजनाओं, जैसे सड़क, स्कूल, आंगनवाडी आदि, के लिए 1 hectare तक ‘वन भूमि’ का हस्तांतरण ग्राम सभा के प्रस्ताव तथा वन विभाग के प्रभागीय वन अधिकार (डी.ऍफ़.ओ) की मंज़ूरी से संभव है। सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल में पेड़ों की छंगाई के मामले में (केस संख्या IA 3840 ऑफ़ 2014 गोदावार्मन रिट याचिका 202 ऑफ़ 1995)सेवानिवृत वन संरक्षक वी.पी.मोहन की अध्यक्षता में एक कमिटी गठित की थी । इस कमिटी ने FRA के अंतर्गत होने वाले हस्तांतरण पर रोक लगाने का सुझाव कोर्ट को फरवरी 2019 में दिया क्योंकि कमिटी के अनुसार हिमाचल में इससे बड़े स्तर पर पेड़ कटान होने की वजह से पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने वी.पी.मोहन कमिटी के सुझाव को मानते हुए पहले डी.ऍफ़.ओ द्वारा वन हस्तांतरण तथा पेड़ कटान पर पूरी रोक लगाई थी परन्तु मई 2019 में यह आदेश दिया कि वन हस्तांतरण के प्रस्ताव पहले न्यायालय को प्रस्तुत किये जायेंगे।
इस निर्णय के चलते FRA की धारा 3(2) की प्रक्रियाएं थम गयीं और राज्य में यह बात फैल गयी कि सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार कानून पर रोक लगा दी है और अब डी.ऍफ़.ओ नई परियोजनाएं मंज़ूर नहीं कर सकते।वैसे तो FRA का क्रियान्वयन हिमाचल में कई चुनौतियों में घिरा रहा है और आज तक राज्य में केवल कानून के अन्तर्गतं केवल 136 सामूहिक और निजी दोवों को पट्टे मिले हैं. लेकिन कम से कम राज्य सरकार कानून की धारा 3(2) के तहत मूलभूत सेवाएं विकसित करने में सक्रीय रही और 2014 से ले कर 2019 तक राज्य में करीब दो हज़ार स्थानीय परियोजनाएं इस प्रावधान से बनीं थी। परन्तु पिछले वर्ष से, न्यायालय की दखल के बाद, यह प्रक्रिया भी थम गयी है ।
हिमधारा समूह ने अपनी रिपोर्ट में पाया है कि वन अधिकार कानून के तहत अब तक प्रदेश के 41 वन प्रभागों में 1959 मूलभूत विकास परियोजनाओं (सड़क, स्कूल, आंगनवाड़ी, महिला मंडल) के लिए 887 वन भूमि का हस्तांतरण हुआ है जिसके लिए 17 हजार 327 पेड़ों की कटाई करनी पड़ी। वीपी मोहन कमेटी इन परियोनाओं और बड़ी परियोजनाओं के लिए वन हस्तांतरण को एक तराजू में तौल रही है जो कि सही नहीं है। हिमधारा ने बताया है कि कौल डेम के लिए 50 हजार पेड़ काटे गए, रेणूका बांध के लिए 1 लाख 50 हजार पेड़ काटे जाएंगे, धर्मशाला में केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए 54 हजार पेड़ काटे जाएंगे, अभी तक फोरलेन निर्माण में 80 हजार पेड़ों की बलि दी जा चुकी। इस से साफ होता है कि जनता के विकास के लिए जरूरी परियोजनाओं की बारी आती है तो सरकार को जंगल बचाने की याद आ जाती है और जब बड़ी परियोजाओं के लिए जंगल या पेड़ काटने की बारी आती है तो वह खुशी-खुशी बड़े-बड़े आयोजन कर सरकार दावतें देती है।
हाल ही में हुई इनवेस्टर मीट के तहत जो 95 हजार करोड़ के एमओयू हुए हैं अगर यह लागू हो जाए तो कितने जंगल का नाश होगा इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इतना ही नहीं सरकार हाईड्रो प्रोजेक्ट, मंडी के बल्ह, नांज, तत्तापानी जैसे इलाकों की उपजाऊ भूमि को भी बड़ी परियोजानाओं के लिए दे रही है।
हिमधारा समूह ने सुझाव देते हुए अपनी रिपोर्ट में बताया है कि सर्वोच्च न्यायालय को वन अधिकार कानून की धारा 3(2) पर लगाए गये नियंत्रण पर पुनर्विचार करना चाहिए। साथ ही वन भूमि के सीमांकन और पिलर लगाने की प्रक्रिया की से पहले हिमाचल सरकार को राज्य में वन अधिकार कानून 2006 को पूर्ण रूप से लागी करना चाहिए।
हिमाचल सरकार को जनता का पक्ष न्यायालय के समक्ष पुरजोर तरीके से रखना चाहिए ।साथ ही राज्य सरकार केन्द्रीय जन जातीय मंत्रालय (जो FRA क्रियान्वयन की NODAL AGENCY है) को इस केस से अवगत कराए ताकि वो इस मामले में कोर्ट के समक्ष कानूनी पक्ष रखें ।राज्य में इस कानून को पूर्ण रूप से लागू करने की तरफ जल्द से जल्द कदम उठाने चाहियें।
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