प्राचीन हिमाचल का परिचय
- ahtv desk
- 4 जन॰ 2020
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- गगनदीप सिंह
भारत के कई पर्वतीय राज्यों में से हिमाचल प्रदेश एक है। यह हिमालय पर्वत के पश्चिम में स्थित है जिसको पश्चिमी हिमालय कहा जाता है। देश के हिसाब से यह उतर में स्थित है। मुख्य रूप से यह पहाड़ी राज्य है जिसकी पहाड़ियों की समुद्र तल से ऊँचाई 350 मीटर से लेकर 7000 मीटर तक है। ऊँचाई में बेहद असमानता होने के चलते पर्यावरण-वातावरण भी बेहद असमानता लिए हुए हैं। इसके ऊपरी हिस्से बर्फ से ढके हैं यहां बारिश नहीं होती। कांगड़ा-धर्मशाला-पालमपुर जैसे इलाके हैं जहां चिरापूंजी के बाद सबसे अधिक बारिश होती है। वहीं शिवालिक रेंज के निचले हिस्से गर्मियों में बेहद गर्म होते हैं। इसकी सीमाएं उतर में जम्मू-काश्मीर, दक्षिण-पूर्व में उतर प्रदेश, दक्षिण में हरियाणा और पश्चिम में पंजाब से लगती हैं।
पहले इसके काफी बड़े हिस्से को पंजाब हिल्ल स्टेट्स के तौर पर जाना जाता था। सर्वप्रथम हिमाचल प्रदेश 15 अप्रैल 1948 को पंजाब के 30 पहाड़ी स्टेट्स को अलग करके केंद्रीय प्रशासन के अंतर्गत अस्तित्व में आया। 1954 तक बिलासपुर रियासत पृथक राज्य के तौर पर अलग रही, जिसको बाद में मिला लिया गया। 1966 तक प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्र फल 28,192 वर्ग किलोमीटर था। पंजाब रिकोगनाईजेशन एक्ट 1966 के बाद पंजाब हिल्ल स्टेट्स के इलाकों को हिमाचल को दे दिया गया। इसमें कांगड़ा, कुल्लु, शिमला, लाहोल-स्पिति और कुछ इलाका होशियारपुर, गुरदासपुर, अंबाला जिलों का था। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश का क्षेत्र फल 55 हजार 673 वर्ग किलोमीटर है। हिमाचल प्रदेश को संपूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी 1971 को मिला, तब तक यह केंद्रीय शासित प्रदेश के तौर पर रहा।
2011 की जनगणना के अनुसार हिमाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या - 68 लाख 56 हजार 509। हिमाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या का 89.96 प्रतिशत गांव में निवास करता है। हिमाचल प्रदेश कुल 12 जिले, 151 तहसील, 75 विकासखंड, 20690 गांव, 3226 ग्राम पंचायतों और 59 शहरों में बंटा हुआ है। हिमाचल प्रदेश की कुल साक्षरता दर 82 प्रतिशत है। महिला साक्षरता 76 प्रतिशत और पुरुष साक्षरता 85 प्रतिशत है। हिमाचल मुख्यतः खेती प्रधान राज्य है। जनता की जीविका का मुख्य साधन कृषि, बागवानी है। इसके अलावा पर्यटन उद्योग (धार्मिक और सैलानी), उद्योग भी कुछ इलाकों के सीमित लोगों के लिए जीविका का एक अन्य साधन है। जनसंख्या घनत्व उत्तर की बजाए दक्षिण के मैदानी इलाकों में केंद्रित है।
हिमाचल प्रदेश संक्षिप्त इतिहास
कहा जाता है कि हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही पुरातन है जितना कि मानव का इतिहास। लेकिन मानव इतिहास के वास्तविक प्रमाण यहां पर 2 करोड़ साल पहले से मिलने शुरू होते हैं। वर्तमान बिलासपुर जिला के हरितल्यंगार क्षेत्र और नालागढ़ की शिवालिक घाटी से प्राप्त मानव फॉसिल्ज के अनुसार इस पर्वतीय क्षेत्र में लगभग 2 करोड़ साल पहले मानव जीवन आरंभ हो चुका था।[1] कांगड़ा जिला की बाणगंगा और व्यास घाटी, बिलासपुर-नालागढ़ की सतलुज घाटी, सिरमौर की मार्कण्डेय घाटी और कुल्लू की व्यास नदी घाटी के सर्वेक्षण से प्राप्त विभिन्न पत्थर के औजारों से इस बात का प्रमाण मिलता है कि यहां पर पाषाणकालीन बस्तियां होती थी। जिसका समय काल 5000 हजार वर्ष पूर्व है। संभवतः इसी युग के अंतिम चरण में यहां के आदि मानव ने शिकार के साथ-साथ पशु-पालन, कृषि और घर बनाकर रहना सीखा। इसी के साथ ग्रामीण सभ्यता का विकास होने लगा था।
आर्य पूर्वकाल में निचली शिवालिक श्रेणियों में किरात नामक एक और महत्वपूर्ण जनगण रहता था जिनका राजा शांबर आर्य राजा दिवोदास से लड़ा था। किरातों का अपना एक सुगठित समाज था जिसमें कानून व्यवस्था की अपनी प्रणाली थी। वे नगरों में रहते और दुर्ग बनाते थे। हिमाचल क्षेत्र से आर्यों का पहला संपर्क 3000 से 2500 वर्ष के बीच हुआ जब वे परुष्णी (रावी) को पार करके आर्जिकीय (व्यास) नदी तक पहुंच गए। यहां उनका सामना किरातों से हुआ जिनका राजा निचली शिवालिक श्रेणियों में बैजनाथ के निकट अपने ढंग से राज्य करता था। तब आर्यों का राजा दिवोदास था और ऋषि भारद्वाज उनके प्रमुख सलाहकार थे।[2]
ऋग्वेद के अनुसार हिमाचल के पर्वतीय भू-भाग में गंधर्व, गंधार, आर्जिक, दास, दस्यु, यक्ष, असुर, दानव, पिशाच आदि आदिम कबीलों का निवास था। इन जनपदों में सर्वाधिक प्रभावशाली दास थे और उनका 'जनपति' शम्बर सबसे शक्तिशाली शासक था। शम्बर के 99 दुर्ग थे। आर्यों के राजा इंद्र ने हमला कर जीत इन 99 दुर्गों को अपने कब्जे में ले लिया था। ऋग्वेद में शम्बर के शासन को 'दास, कोलितर, शम्बर, राज' कहा गया जिस से पता चलता है कि शम्बर कोल व दास समुदाय का नेता था। [3]
सिंध और पंजाब के मैदानी इलाकों में आर्यों ने कब्जा जमा लिया था। आर्य राजनीतिक रूप से विस्तारवादी थे। आर्यों ने भरत जनपद के अधिपति दिवोदास के नेतृत्व में पर्वतीय इलाकों में मौजूद जनपदों और शम्बर के खिलाफ युद्ध किया। यह संग्राम 40 सालों तक चला था। शम्बर के अलावा पर्वतीय इलाकों के अन्य जनपद सरदार अहि, पिप्रु, वची, नमुचि, वृषशिप, शुण्ण, वृत्र एवं कुथव ने भी इस युद्ध में भाग लिया था। आर्यो जनपदों के दिवोदास, तुर्वंश, तुर्व, वृहदस्त, कुत्स, पुरु, आर्जुनेय आदि जनपतियों ने आर्यों की तरफ से युद्ध लड़ा था। अंत में इस में शम्बर व अन्य पर्वतीय जनपतियों की हार हुई। आर्यों की इस जीत के बाद से हिमाचल में आर्य शासन और संस्कृति का प्रभाव व विस्तार के युग का प्रारंभ हुआ।[4]
यहां पर आर्यों ने आक्रमण कर अपने शासन और संस्कृति की नींव रखी थी। हिमाचल प्रदेश मूलतः भारत के मूलनिवासियों का प्रदेश था। आर्यों के हमले के बाद भारी संख्या में यहां से आदिवासियों का पलायन हुआ। उन्होंने मध्य भारत के घने जंगलों या फिर ऊंचे पर्वतों की तरफ रुख किया। वर्तमान झारंखंड-बिहार के कोल, मुंडा आदि आदिवासियों के साथ हिमाचल की दलित जातियों के जीन मिलते हैं।किन्नर लोग आज किन्नौर में रहते हैं। उनके मुंडा मूल का ऐतिहासिक साक्ष्य यह है कि उनका व्याकरण मंदारी के व्याकरण से मिलता जुलता है जिसे छोटानागपुर क्षेत्र के मूल निवासी बोलते हैं। इसे बहुत प्राचीन काल में मुंडा आदिवासियों और तिब्बतियों के समन्वय का पता चलता है।[5]
महाभारत काल में (लगभग 1000-500 वर्ष ई. पूर्व.) में हिमाचल में आर्य संस्कृति एवं राजनीति से प्रभावित अनेक नए जनपदों का जन्म हुआ। इनको उस समय गण या गणराज्य कहा जाता था। महाभारत के अनुसार उस समय पर्वतीय क्षेत्रों में सबसे शक्तिशाली राज्य त्रिगर्त-गण था। जो विपाशा, शतद्रू और परूषणी नदी की घाटियों में फैला हुआ था। वर्तमान शिमला और सिरमौर क्षेत्र में कुणिन्द गण भी एक शक्तिशाली राज्य था जिसका क्षेत्र सतलुज से यमुना घाटी तक फैला था। कुणिंद का पड़ोसी यौधेय था जो हिमाचल के मैदानी भागों में फैला था। वर्तमान किन्नोर क्षेत्र में गंधर्व-गण था। कुल्लू में कुलूत गण था। पर्वतीय राज्य अर्ध-गणराज्यों का रुप ग्रहण कर चुके थे। महाभारत युद्ध में कुणिन्द, त्रिगर्त, औदुम्बर, और शतद्रुज के गणपति और योद्धाओं ने कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ा था। पांडवों से युद्ध हारने के बाद पहली बार संभवत हिमाचल प्राचीन आर्यवर्त का हिस्सा बना था। उसी समय त्रिगर्त के शासक सुशर्मन ने युगन्धर (जलांधर) को छोड़ कर अपनी राजधानी कांगड़ा के नगरकोट में स्थापित की थी।[6]
बौद्ध धर्म के उदय के साथ पूरे देश में ब्राह्मणवादी व्यवस्था कमजोर होती गयी। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले कर्मकांड और यज्ञ भारतीय समाज के विकास में, खासतौर खेती के विकास में बाधक बनने लगे थे। यज्ञों के दौरान किसानों को भारी मात्रा में उपहार देने पड़ते थे, बहुत सारे यज्ञ ऐसे थे जिसमें हजारों की संख्या में गायों की बली दी जाती थी, खेती के लिए उस समय गाय और बछड़ों का सर्वाधिक महत्व था। बौद्ध धर्म में कर्मकांड व यज्ञों को चुनौती दी। राजाओं और उस समय के व्यापारी व किसान वर्ग के लिए यह हितकारी था। इस लिए बौद्ध धर्म फला-फूला और राज धर्म बनने से बड़े साम्राज्य अस्तित्व में आए। बौद्ध धर्म ने लंबे समय तक राजनीतिक स्थिरता स्थापित की। हिमाचल का लगभग सारा इलाका बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं के अधीन आ गया था। इस दौर को पाणनि ने अपने ग्रंथ अष्टाध्यायी और कौटिलय ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में जिक्र करते हुए यहां के कबीलों को 'आयुद्धजिवी या शस्त्रोपजीवी' की संज्ञा दी है। इन संघों के सभी सदस्य हथियार उठा कर चलते थे इस लिए उनको आयुद्धजीवी कबीले भी कहा गया है। पाणनी के अनुसार त्रिगर्त-संघ और पर्वरतीय क्षेत्र के सभी गण आयुद्धजीवी संघों में संगठित थे और इनमें से अधिकतर क्षत्रिय कबीले थे। ये कबीले यमुना, ब्यास, सतलुज और रावी नदी के तटों पर आबाद थे।
सितंबर 326 ई.पूर्व तक सिंकदर हाइफेसिस (व्यास) के दाहिने तट तक पहुंच चुका था। वह उसके पार के राज्यों को जीतने पर आमादा लगता था जो बहादुर किसानों के वंशों के रूप में प्रसिद्ध थे, जिनके पास अभिजातवादी शासन की एक प्रसंशनीय प्रणाली थी। (संभवतः औडंबर और त्रिगर्त) और जिनका इलाका उपजाऊ था। उस महान विजेता को महसूस हुआ कि उसके सैनिक अब अपन पुरानी तत्परता से उसके आदेशों का पालन नहीं करते थे तथा अधिक दूर की और कठिन, दुस्साहसी यात्राएं करने के लिए तैयार नहीं थे। उसने एक जोशीला भाषण देकर उनके उत्साह को उभारना चाहा जिससे उसने उनकी पिछली जीतों को याद दिलाया था और उनको पूरे एशिया के क्षेत्र और संपत्ति देने का वादा किया। लेकिन वे सैनिक जवाब में खामोश रहे। तब सिकंदर के घुड़सवार सेना के विश्वसत जनरल कोइनोस ने जबाव देने की हिम्मत बटोरी। उसने राजा से प्रार्थना की कि अपने सैनिकों के थककर चूर हुए शरीर और साहस को देखे जो लगभग 8 साल पहले घर छोड़कर निकले थे और अब आगे जाने की हालात में नहीं थे।.... सिकंदर तीन दिन तक अपने खेमे में रहा और जोतिषियों की सलाह के बाद वापिस मुड़ने के लिए तैयार हुआ। उसने अपनी विजय यात्रा के निशानी की तौर पर व्यास पर वर्गाकार पत्थरों की बारह बड़ी वेदियां बनवायीं जिनमें प्रत्येक 50 क्यूबिक ऊँचाई की थी और जो बारह बड़े देवताओं को समर्पित थीं। ...ये स्मारक स्रोतों के अनुसार कांगड़ा जिले में स्थित इंदौरा और पहाड़ियों की तलहटी के पास स्थित मिर्ठल के बीच ऐसी जगह बनवाये गए जहां व्यास पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। ऊतरी तट के कटाव के कारण इन स्मारकों के सभी चिन्ह मिट चुके हैं।[7] कुछ इतिहासकारों का मत है कि कुल्लू की मलाना घाटी में बसने वाले लोग सिकंदर के साथ ही हिमाचल में आए थे, वह सिकंदर के बचे हुए सैनिक है जिनकी शासन व्यवस्था को सबसे पुरानी गणतात्रिक व्यवस्था भी कहा जाता है।
बाद में यह इलाका मौर्य साम्राज्य (324ई.पू.-185ई.पू.) का भाग रहा। अशोक के बाद के बाद यूनानी शासक एंटिअंक्सि, अपोलोडोट्स, मिनेंडर, ऐण्टिमेक्स (230 ई. पू. 130 ई.पू.) आदि का इस पर्वतीय क्षेत्र से संपर्क रहा। मौर्य साम्राज्य और यूनानी शासकों के चले जाने के बाद यहां पर फिर प्राचीन कबीलाई गणों का विकास हुआ। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी तक यहां पर कुलूत, कुणिन्द, औदुम्बर, त्रिगर्त, गंधर्व और यौधेय आदि के गण पुन अधिक शक्तिशाली तरीके से राजतंत्र के रूप में विकसित हुए। इन्होंने 200 सालों तक राज किया। इसी समय राजा की उपाधि और हिंदू नामांकरण की प्रथा प्रचलित हुई।
गुप्तकाल (320 ई. से आरंभ) में मगध के सम्राटों ने फिर से पहाड़ी राज्यों के अपने अधीन कर लिया। वार्षिक कर व उपहार देने की प्रथा भी इन्हीं दिनों आरंभ हुई। इसी काल में प्राचीन गणराज्य कुणिद, त्रिगर्त आदि पूरी तरह से विलुप्त हो गए। प्राचीन जनपदों के पतन के बाद यहां पर मैदानी इलाकों से राजपुत (क्षत्रिय) शासकों ने आकर अपने नए छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की।
540 ई. के लगभग मध्य एशिया के हुणों ने यहां के पर्वतीय भू भाग पर प्रवेश किया। इस काल में ही प्राचीन कबीलों के शासक जो'राणा' और 'ठाकुर' कहलाते के छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। यह सामंत राज्य थे। राणा के अधिकार क्षेत्र को राहुण और ठाकूर के इलाके को ठकुराई कहते थे। ये आपस में एक दूसरे को जीतने के लिए लड़ते रहते थे। इनका शासन प्रबंध सामंती किस्म का था। सातवीं शताब्दी में कनौज के सम्राट हर्षवर्धन ने उतर भारत में एक बड़ा साम्राज्य कायम किया। पूरा हिमाचल उसके अधीन हो गया था।
लेकिन जब 647 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु हुई और साम्राज्य का पतन हुआ तो उतर भारत में राज्यों और राजाओं की बाढ़ सी आ गई। हर कोई राजा बनना चाहता था और अपने राज्य कायम कर रहा था। मैदानी इलाकों के राजपुत शासकों में युद्ध हुए। इन युद्धों में जो भी राजा हार जाता था वह हिमाचल का रुख कर लेता था। इन हारे हुए राजाओं ने हिमाचल के छोटे-सामंती शासकों को हरा कर या उन से जमीनें खरीद कर अपने राज्यों की नींव रखी और पूरे हिमाचल में अपने राज्य कायम किए। इसी दौरान सुकेत पर बंगाल से भाग कर आए गौर वंश के सेन शासकों ने सुकेत इलाके के राणाओं व ठाकरुओं को हरा कर अपना शासन स्थापित किया।
मुगल साम्राज्य की पराकाष्टा पर यह सारा पहाड़ी इलाका जो आज हिमाचल प्रदेश के अंतर्गत आता है बयालीस छोटी-बड़ी रियासतों और जवाड़ों में बंटा हुआ था। यहां के शासक राजा, राणा और ठाकुर दिल्ली को वार्षिक कर भेजते थे और उन्हें समय-समय पर मुगल दरबार से मान और खिल्लत मिलती रहती थी। यदा-कदा ये लोग आपसी कलह में जूझे रहते थे। इन आपसी झगड़ों को निपटाने के लिए कभी-कभी मुगल सूबेदार से हस्तक्षेप के लिए प्रार्थना करनी पड़ती थी जो इन झगड़ों को निपटाने में सरपंच बनता था। यह सिलसिला काफी वर्षों तक जारी रहा। मुगलों के समय हिमाचल की यह रियासतें दो हिस्सों में शाषित थी। एक भाग जालंधर के गवर्नर के अंतर्गत आता था दूसरा सरहिंद के गवर्नर (नवाब) के अधीन आता था। सुकेत और मंडी रियासत जालंधर गवर्नर के अंतर्गत आती थी। इनमें लगभग तमाम राजे हिंदु थे। [8]
[1]हिमाचल प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास, पृ. 1, भाषा एवं सांस्कृतिक विभाग हिमाचल प्रदेश, शिमला-9, मुख्य संपादक डा. देवेंद्र गुप्ता
[2]हिमाचल प्रदेश, हरि कृष्ण मिट्टू, अनुवाद नरेश 'नदीम' एनबीटी, 2001 पृ. 18
[3]हिमाचल प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास, पृ. 1, भाषा एवं सांस्कृतिक विभाग हिमाचल प्रदेश, शिमला-9, मुख्य संपादक डा. देवेंद्र गुप्ता
[4]वही, पृ. 2
[5]हिमाचल प्रदेश, हरि कृष्ण मिट्टू, अनुवाद नरेश 'नदीम' एनबीटी, 2001 पृ.17
[6]वही पृ. 3
[7]हिमाचल प्रदेश, हरि कृष्ण मिट्टू, अनुवाद नरेश 'नदीम' एनबीटी, 2001 पृ. 21
[8] चमन लाल मल्होत्रा, हिमाचल का क्रांतिकारिक इतिहास, पृ. 3-4
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