सुकेत रियासत का इतिहास
- ahtv desk
- 5 जन॰ 2020
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कथा करसोग

- गगनदीप सिंह
अप्रैल 1948 में भारत में विलय से पहले सुकेत रियासत कांगड़ा हिल स्टेटस का भाग होती थी। सुकेत रियासत का कुल इलाका लगभग 420 वर्ग मील था। जो कि सतलुज के उतर में 31013 और 31035 उतर और 76049 और 77026 पूर्व में स्थित था। इसके उतर में मंडी रियासत और पूर्व में कुल्लु सब डिविजन की सिराज तहसील होती थी, इसको बेहना धारा अलग करती थी। दक्षिण में बिलासपुर व भज्जी रियासत से इसको सतलुज अलग करती थी। पश्चिम में बिलासपुर की सीमा लगती थी।
1933 में इसकी जनसंख्या लगभग 58408 थी।
सबसे अधिक लंबाई चवासी इलाका के फेरनू से डैहर 71 मील थी। चौड़ाई सबसे अधिक तत्तापानी से मंडी के मैदानगढ़ इलाका तक थी मात्र 15 मील थी।
करसोग शहर और ममेल में घाटी चौड़ी है। ऊपजाऊ दृष्टि से यह बल्ह जैसी है। रास्ते बहुत कठिन थे। घाटियां एक दूसरे से कटी हुई थी। रास्ते बहुत खड़े और खतरनाक थे।
सतलुज नदी फेरनू के पास रियासत में दाखिल होती थी जो चवासी गढ़ इलाका से bagra, mahaun, derahat, batwara and dehar से गुजरती है लेकिन इसका पानी ऊंचे किनारे होने के चलते सिंचाई के काम नहीं आता।
महाभारत में सुकेत का जिक्र सुकत्ता के तौर पर आता है। इती तरह महान व्याकरणशास्त्री पाणिनी ने भी सुकेत को सुकत्ता ही कहा है। लोक-कथाओं में इसका जिक्र सुखदेव के रूप में मिलता है कहा जाता है कि ऋषि व्यास का पुत्र सुखदेव था जिसके नाम पर सुंदरनगर में सुखदेव वाटिका भी बनी हुई है।
हिमालयी क्षेत्र में कोलियों के पुरातन अवशेष यह सिद्ध करते हैं कि यहां पर प्रारंभिक सभ्यता मौजूद थी। कोल नवपाषाणकालिन मानव प्रजाति के उत्तराधिकारी हैं। यह द्राविड़ों की उच्चत्तम बल थे। किरातों (मंगोल) की उपशाखा नागों की यहां अभी भी पूजा होती है। खसों का संबंध इंडो-आर्य प्रजाति से हैं जो हिमाचल में आई जिसको पश्चिम हिमालय में अभी कनैत और राव के रूप में जाना जाता है। सप्त सिंधु के नाम से जाने वाला इलाका जिसके अंतर्गत आता था उसमें से दो नदियां ब्यास और सतलुज इसी इलाके में है, और यह उसका भाग था।[1]
मौर्य शासनकाल में यह इलाका बौद्ध संत मज्जहिमा के अंतर्गत आता था जिसने यहां बौद्ध धर्म का विस्तार किया। कनिष्क ने भी इसको अपने अधीन किया। दूसरी शताब्दी में यह इलका कुलिंदाओं के अधीन रहा और कुषणों का शासन रहा। गुप्ता साम्राज्य के उद्भव के समय चौथी शताब्दी में यह समुद्र गुप्त के अधीन आ गया। पांचवी शताब्दी में एक अन्य एशियाई जनजाति हुनों जिसको गुज्जर भी कहा जाता है ने गुप्त वंश को हरा दिया। उनके शासक तोरमाना और महिरकुल ने हिमालयी क्षेत्र पर अपना शासन किया।[2]
सुकेत रियासत की स्थापना को लेकर अलग-अलग इतिहासकारों में मतभेद मौजूद है। अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम सुकेत रियासत की स्थापना 765ई. मानते हैं तो वहीं जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सुकेत रियासत की स्थापना 1211ई. में हुई है। लेकिन सुकेत की पहली राजधानी पांगणा ही थी इस पर दोनों तरह के इतिहासकार एक मत है। गिरीधारी सिंह ठाकुर अपने आलेख में डा. एमएस आहलुवालिया की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ दा हिमाचल प्रदेश का हवाला देते हुए लिखते हैं कि – सुकेत, मंडी, क्योंथल और किश्तवाड़ के प्रमुख सव्य को बंगाल के सेन वंश के सह वंशज मानते हैं। मुहम्द बख्तियार खिलजी के बंगाल के आक्रमण के दौरान राजा लक्ष्मण सेन (1178-1205) नादिया से पश्चिमी बंगाल की तरफ भागा था। उसका एक उतराधिकारी रूपसेन पूर्वी पंजाब में पहुंचा और रोपड़ में बस गया। (वर्तमान में इस जिले का नाम रूपनगर है) तुर्कों के भय के कारण उसके तीन पुत्र शरण हेतु पहाड़ों की ओर भागे इन तीनों भाईयों में बीर सेन, गिरी सेन और हम्मीर सेन ने क्रमशः सुकेत, क्योंथल और किश्तवाड़ (जम्मू) में अपनी-अपनी रियासतों की स्थापना की। सुकेत रियासत की स्थापना वीर सेन ने 1211ई. में की थी।
कनिंघम का तर्क इस लिए भी सही जान पड़ता है क्योंकि – गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद सीस-हिमालय क्षेत्र में रावी और जमुना के बीच छोटे-छोटे नए मुखियाओं का उदय हुआ था जिसको ठाकुर और राणाओं के नाम से जाना जाता है।[3] राणा और ठाकुर स्वतंत्र और अर्ध स्वतंत्र शासक थे जिनके अपने छोटे राज्य होते थे। राणा क्षत्रिय थे और ठाकुर कनैत और अन्य समकक्ष जातियों से थे। राणा और ठाकुर सुकेत और मंडी में काफी संख्या में रहते थे। उन्होंने लगभग आखिरी तक अपनी स्वतंत्रता कायम रखी। भारतीय इतिहास में 8वीं से 12वीं शताब्दी तक के काल को राजपुत काल कहा जाता है। राजपूतों ने हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद काफी संख्या में भारत में अपने राज्य कायम किये थे। उन्होंने मध्य भारत से हिमालय घाटियों तक अपना हस्तक्षेप किया।[4] इसके अलावा हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल्ल स्टेट्स पुस्तक में हिचसन द्वारा सुकेत से पहले स्थापित राज्य चंबा, कुल्लू, कहलूर (बिलासपुर) आदि के इतिहास से जो हवाले पेश किये गए हैं उनमें भी यह बात स्पष्ट होती है कि सुकेत की स्थापना 8वीं शदी में हुई है।
मंडी और सुकेत के राजा दोनों एक ही चंद्रवंशी राजपुत वंश से आते हैं जिनका दावा है कि वह महाभारत के पांडवों के वंशज हैं। उनका मानना है कि उन्होंने दिल्ली पर 1700 सालों तक राज किया है। लेकिन यह विश्वसनीय दावा नहीं है।[5]
इस वंश का सबसे महत्वपूर्ण राजा लक्षणसेन था, इसके बारे में कहा जाता है कि इसने कनौज, नेपाल और ओड़िशा को जीत लिया था और मालदा में गौड़ों का शहर बसाया जिसको वह लोकनौटी कहते हैं। बाद में इनकी राजधानी नादिया बनी जिसने वहां पर 1198 ई. तक राज किया जब तक कि बख्तियार खिलाजी ने उसको वहां से भगा न दिया।
अंतिम शासक प्रयाग की तरफ पीछे हटा और वहां अंतिम सांस ली। उसके बेटा रूप सेन ने अंबाला के पास रोपड़ में अपना डेरा डाला। वहां पर मुस्लमानों ने इन पर हमला किया और वह युद्ध में मारा गया उसका बेटा पहाड़ों की तरफ भागा और अलग राज्य की स्थापना की। बीर सेन सुकेत का, गिरी सेन क्योंथल का और हमीर सेन कश्तवाड़ का शासक बना।
वीर सेन ने छोटे शासकों पर हमला किया और सतलुज के आसपास के इलाके को जीत लिया। कंडीघाट के ठाकुर ने कोई विरोध नहीं किया। इसक बाद सुरही के ठाकुरों ने भी हाथ खड़े कर दिया चांदमारी थाना, गौहर और पांगना इलाका इसके अंतर्गत आता था। ठाकुर ने राजा से अपील की वह हरियारा के ठाकुर पर भी हमला करे। यह सुन कर ठाकुर भाग गया और वहां पर राजा ने महल बनाया जिसको टिक्कर कहा जाता है। सुरही इलाके में 5000 फुट ऊंची जगह देख कर बीर सेन पांगना को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन वर्तमान में उस समय के कोई निशान मौजूद नहीं हैं।
वीर सेन द्वारा सुकेत रियासत की स्थापना से पूर्व इस क्षेत्र का शासन-प्रशासन लोक देव परंपराओं, मर्यादाओं अनुसार मियां, ठाकुर, राणाओं, सामंतों व धी-मानी व्यक्तियों द्वारा चलाया जाता था। देव तंत्र शिथिल हो रहा था ऐसे समय में व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के कारण समाज व शासन छोटी-छोटी ठकुराईयों में बंट गया। वर्ग संघर्ष के इस काल में सुकेत के संस्थापक वीर सेन को राज्य विस्तार हेतू अनुकूल वातावरण मिला उसके साहस शौर्य और सूझबूझ के परिणाम स्वरूप उसने जनोवी, पांगणा, मांहू, रियंसी, विऊंश, कजौण, रामगढ़, बगड़ा, चौवासी, शामली, पांगणा, गरवी द्रहट, शरकी द्रहट इलाकों को अपने अधीन कर लिया। वीर सेन ने अपने राज्य का विस्तार द्रुत गति के साथ किया।[6]
वीर सेन ने सर्व प्रथम करोली के ठाकुर के राज्य द्रैहट पर आक्रमण किया तथा शीघ्र ही उसके किले को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद वटवाड़ा के राणा श्री मंगल पर चढ़ाई की तथा उसे भी अपने अधीन करने में वीर सेन सफल हुए। इसके बाद नागड़ा, चुराग, वटाली, कोट पांगणा, ठाणा चांवडी, उदयपुर आदि इलाकों पर कब्जा किया।[7]
वीर सेन ने कोटी-दोहार के ठाकुर शासकों पर हमला कर नांज, सलालु, बेलू, ठाणा बगड़ा के इलाकों पर कब्जा किया।
राणा सनारटू ‘विऊंश’ का अत्यंत शक्तिशाली शासक था। उस पर तीव्र संघर्ष के बाद कब्जा किया जा सका। हमला कर उसे बंदी बना लिया। उसे ठाणा कजौण तथा घंग्यारा कोट छीन लिए गए। बाद में उसे जेल से मुक्त कर जागीर प्रदान की गई तथा उसे अपने अधीन कर लिया। श्याम सेन (1627-58) तक यह जागीर उसके वंशजों के पास रही। वीर सेन की सेना ने कुन्हों धार के ठाकुर शासकों को वहां से भगाया तथा कुन्होंधार के इलाके में ‘नरोल’ (गुप्त) महल रानियों के लिए बनाया था।[8]
इसके बाद बीर सेन बल्ह इलाके में दाखिल हुआ और इसके बाद सिकंदर की धार की तरफ बढ़ा। हटेली के राना को हरा दिया गया इसकी निशानी के तौर पर बीरकोट (बिहारकोट) नामक किले की स्थापना की।
बीर सेन ने कांगड़ा के सिरखड़ तक , सतलज से ब्यास तक अपना सीमा निर्धारित की। पांगणा सुकेत की सबसे पहली राजधानी बनी।
बीर सेन ने जब पश्चिम सतलुज के तमाम छोटे शासकों को जीत लिया तो उसके बाद उसने दक्षिण-पश्चिम के कंदलीकोट के ठाकुरों की सीमा पर हमला किया, उन्होंने इसका कोई प्रतिरोध नहीं किया। इसके बाद अगले शासकों ने सोचा कि वह बहुत ताकतवर है और उन्होंने भी समर्पण कर दिया। बीर सेन ने सुरही के ठाकुर जिसके पास चांदामारी का थाना, जोहर और पांगना का इलाका भी था, को कब्जे में कर लिया। ठाकुर ने समपर्पण कर दिया और उसने राजा से प्रार्थना की कि वह अब हरियारा के ठाकुरों पर भी हमला करे। यह खबर सुन कर हरियारा के ठाकुर भाग गए और टिक्कर में जा कर टिके। बीर सेन ने फिर सुरही इलाके में समुद्र तल से 5000 फिट ऊंची जगह पांगना को अपनी राजधानी के लिए चुना था।
बीर सेन ने ही चवासी और बीरकोट में किला बनाया जो कुमार सेन की सीमा से लगता था। इसके बाद सिराज की तरफ अभियान चलाया और वहां के कई किलों को जीत लिया जैसे सूगढ़, नयनगढ़, प्रागपुर, जंज, माधुपुर, बेनगा, चंजवाला, मगरु, मानगढ़, तुंग, जलुरी, हिमरी, रायगढ़, फतेहपुर, कोथमनाली। यह कुल्लु इलाके के विभिन्न ठाकुरों से जीते।
कुल्लु के राजा भूपाल ने इसका विरोध किया. उसको हरा कर उसे गिरफ्तार किया और बाद में नजराना देने की एवेज में छोड़ दिया गया। कुल्लु से लोटते हुए बीर सेन ने पंडोह, नाचन और चिरिहान, रियाहान, जुराहंदी, सतगढ़, नंदगढ़, च्चोयट और सवापुरी किलों को जीता।
वीर सेन के बाद शासक मदन सेन (1240ई. -1265ई.) हुए जिसने अपनी राजधानी पांगना से बदल कर बल्ह के मैदानी इलाके लोहारा में स्थापित की। हालांकि भारतीय संघ में मिलने से पहले तक (1948ई.) पांगणा सुकेत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनी रही। सुकेत की आखिरी राजधानी सुंदरनगर रही जिसका पहले नाम बनेड था। इसकी स्थापना बिक्रमसेन (1791-1838ई.) द्वारा की गई थी। मदन सेन ने राज्य का विस्तार कुल्लू, मंडी, बिलासपुर, कुटलहड़ तक किया था और कई किले बनाए थे। पांगना से दो कोस दूर उसने मदनगढ़ का निर्माण किया। पांगणा में अष्ठम्बनाथ मंदिर का निर्माण किया। कुटलैहड़ सीमा पर कोटवालवाह में एक किला बनाय था जो आज भी मौजूद है। बिलासपुर के सियोनी और टियोनी के किले जीते।
श्याम सिंह के समय (1620ई.-1650ई.) सुकेत मुगलों के अधीन आ गई, मुगलों ने उनको खिलात भेंट की। अन्य पहाड़ी राज्यों की तरह मुगलों के समय सुकेत भी एक स्वतंत्र रियासत के तौर पर कायम रही। इसके बाद जस्सा सिंह रामगढ़िया ने कांगड़ा हिल्ल स्टेट्स पर कब्जा किया और 1770-1775 तक सुकेत उसके अधीन रहा। जस्सा सिंह के बाद जय सिंह कन्हैया ने इन इलाकों पर कब्जा किया और 1786 तक कब्जा रहा। कांगड़ा के राजा संसार चंद ने दोबारा कांगड़ा पर अपना अधिकार स्थापित किया और सभी पहाड़ी राज्यों पर सतलूज से रावी के बीच, अपना शासन स्थापित करने की कोशिश की।
मुगलों की शक्ति कमजोर होने के चलते कांगड़ा के राजा संसार चंद ने नगरकोट (कांगड़ा) के किले को अपने कब्जे में लेनी की योजना बनाई। 1782 में सिखों की कन्हैया मिसल के मुखिया जयसिंह की सहायता से उसने कांगड़ा दुर्ग पर घेरा डाला। मुगल गवर्नर को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इसके साथ मुगलों के राज की हिमाचल से छुट्टी हो गई। लेकिन कन्हैया मिसल के मुखिया जय सिंह ने कांगड़ा दुर्ग अपने हाथ में ले लिया। लेकिन वह ज्यादा देर वहां नहीं टिक पाया। पंजाब में उसकी करारी हार हुई और उसे किला छोड़ना पड़ा। लंबे समय के बाद कटोच वंश के पास उसका किला वापिस आया। संसार चंद ने नादौन को अपनी राजधानी बनाकर हिमाचल के छोटे राज्यों पर हमले किये और उनको जीत कर हिमाचल का सबसे बड़ा राजा बन गया। उसने मंडी, सुकेत, बिलासपुर और चंबा को अपने अधीन कर लिया। पंजाब के होशियारपुर, जालंधर, दोआबा, बटाला, बजवाड़ा और पठानकोट को भी अपने कब्जे में ले लिया था।
पहाड़ी राजा कांगड़ा के राजा संसार चंद से तंग आ चुके थे। वह उसको हराना चाहते थे। 1809 बिलासपुर के राजा के जरिए पहाड़ी राजओं (सुकेत, कुल्लु, मंडी आदि) ने गोरखा सेनापति को निमंत्रण भेजा। सुकेत के राजा ने गोरखाओं का साथ दिया।
गोरखाओं को हराने के लिए संसार चंद ने महाराजा रणजीत सिंह की मदद ली। बाद में सारा इलाका 24 अगस्त 1809 को रणजीत सिंह के अंतर्गत आ गया। रणजीत सिंह ने गौरखाओं को भगा कर कांगड़ा, कुल्लू, मंडी, सुकेत, कहलूर आदि को अपने नियंत्रण में ले लिया। देसा सिंह मजिठिया को यहां का निजाम या गवर्नर नियुक्त किया गया था। रणजीत सिंह ने सुकेत पर 10 हजार रूपए नजराना तय किया जिसको बाद में 15 हजार रुपये तक बढ़ा दिया। सिख शासक यहां से लगभग 22 हजार रुपए तक जमा कर लेते थे। राज्य पर यह बहुत भारी पड़ रहा था, जिसको मंडी के जरिए देना होता था। बाद में घटा कर इसको 11 हजार रुपये सालाना कर दिया या।
सिख दरबार व अंग्रेजों में जब समझौता हुआ तो रणजीत सिंह के साम्राज्य की सीमा ब्यास निर्धारित कर दी गयी। तब सारे पहाड़ी राज्य अंग्रेजों के अधीन आ गए। आधिकारीक रूप से सुकेत रियासत 9 मार्च 1846 को अंग्रेजों के अधीन हो गई थी।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय जब पड़ौसी रियासत रामपुर बुशहर के राजा शमशेर सिंह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे तो वहीं सुकेत के राजा उग्रसेन ने पूरी तरह से अंग्रेजों का साथ दिया। इस लिए अंग्रेजों ने बाद में राजा उग्रसेन को कुछ रियायते प्रदान की। अंग्रेजों ने सुकेत में प्रधानमंत्री (वजीर) का पद तय किया और पहला वजीर नरोत्तम को बनाया।
1891 में मि. सीजे हैलिफैक्स, आईसीएस को सुकेत का काउंसलर नियुक्त किया गया और अंग्रेजों ने अपनी सुविधा अनुसार प्रजा द्वारा जमा किए गए लगान से निर्माण कार्य शुरू किए। 1893 में राजा दुष्ट-निकंदनसेन के समय भोजपुर में एक स्कूल शुरु किया गया। 1900 में डाकखाना और 1906 में टैलीग्राफ ऑफिस खोला गया। सतलूज में ज्यूरी (तत्तापानी) में 1889 में एक पुल का निर्माण किया, बनेड में नई जेल बनाई और सड़कों की मुरम्मत करवाई गई।
पहले और दूसरे विश्व युद्ध के समय भी इसी प्रकार सुकेत के दलाल राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया और उनको अपनी सेना व अन्य सुविधाएं मुहैया करवाई। भीमसेन 1908 ई. - में सुकेत रियासत का राजा भीमसेन था। उसने चीफ कॉलेज लाहोर से शिक्षा ग्रहण की थी। पंजाब के लेफटिनेंट गवर्नर सर लुईस डनी (Leuis Dane) ने उनको राजा की संपूर्ण शक्तियां दी थीं। उसने बनेड (सुंदरनगर) में किंग एडवर्ड होस्पिटल की स्थापना की। उसने बनेड, सेरी और डेहर में बंगलों का निर्माण किया और बनेड से मंडी तक मोटर सड़क का निर्माण करवाया। उसने वनों का दोहन किया जिस पर पहले के शासकों ने ध्यान नहीं दिया था।
उसके शासन काल में पंजाब के लेफटिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने 1916 में यात्रा की। इसका उद्देश्य विश्वयुद्ध में युद्ध प्रयासों को तेज करना था।
विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद करने के लिए सुकेत के राजा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अंग्रेजों की सेना में सुकेत से उसने 240 नौजवानों को भर्ती करवाया। युद्ध के लिए तमाम तरह के फंडों को मिलाकर उसने 1 लाख 90 हजार 670 रुपयों की मदद की। इसके अलावा 94483 का लोन दिया। जनता ने 4130 और दरबार ने 44483 रुपये दिए।
राजा के कहने पर भरती हुए सैनिकों को 30 एकड़ जमीन प्रदान की गई। इसके अलावा राज्य ने 37 खच्चर दिए। "राज्य ने कुल मिलाकर दो लाख मूल्यों के 250 आदमियों का उपहार दिया और लगभग 1 लाख के करीब लोन दिया। इसके अलावा महान राजा सिंगल सेक्शन डोगरा का 2-41प्रथम का सारा खर्च वहन किया।" राजा ने 50 घायल व बीमार सैनिकों को भी रखा और देखभाल की।
कंवर लक्षमण सिंह 1919 - भीमसेन की 1919 में निमोनिया से मृत्यु के बाद गद्दी पर उसका भाई कंवर लक्षमण सिंह बैठा। उसने भी चीफ्स कालेज लाहौर से शिक्षा हासिल की। पंजाब सरकार के अधीन अलग-अलग अंग्रेज अधिकारियों के नीचे रहकर उसने न्याय, भूमि बंदोबस्त, खजाना आदि का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके बाद अंग्रेजों ने उनको राजा की तमाम शक्तियां प्रदान की।
लक्षण सेन ने राज्य में लड़के-लड़कियों के लिए प्राथमिक शालाएं खोली, तहसील स्तर पर वैद नियुक्त किए, न्यायालय खोले और कानून बनाए।
उसने माईनिंग इंजिनियर की नियुक्ति कर राज्य में खनिजों की स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करवाई। फोरेस्ट वर्किंग प्लान और फोरेस्ट सेटलमेंट रिप्रोट तैयार की जिसको दरबार के सामने पेश किया गया। इस समय पहला भूमि बंदोबस्त 1921 में किया गया।
नवंबर 1921 में सुकेत रियासत सहित पंजाब की 12 salute States का राजनीतिक निंयत्रण पंजाब से भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था। इसका एजेंट भारतीय सेना के लफ्टिनेंट कर्नल AB Minchin को बनाया गया। इस से पहले भारतीय रियासती बल पुनर्संगठन योजना (Indian States Forces Reorganization Scheme) के तहत सुकेत के राजा ने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और अपनी छावनी व सैनिक ग्राउंड आदि तैयार कर लिए थे। 1924 में राजा ने अपनी राजधानी का नाम बदलकर सुंदरनगर रख लिया। यह सब कुछ अंग्रेजों की देखरेख में हो रहा था। जनता के विकास की बजाए अंग्रेजों की सुविधा के लिए यह सब निर्माण कार्य करवाए गए।
[1] political and socio-cultural history of suket and mandi states (19th and 20th century), sh. himender chand, 2004,
[2] Ibid
[3] political and socio-cultural history of suket and mandi states (19th and 20th centuray), sh. Himender chand, p. 26
[4] political and socio-cultural history of suket and mandi states (19th and 20th century), sh. himender chand, 2004,
[5]मंडी गजटियर.
[6] सुकेत रियासत – सत्याग्रह आंदोलन, गिरधारी सिंह ठाकुर, वार्षिक पत्रिका राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय करसोग, वर्ष 2014-15, पृ. 54
[7] जे.हंचिसन एंड वोगल, हिस्ट्री ऑफ द पंजाब हिल स्टेट्स, 1982, पृ.343
[8] उपरोक्त
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