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स्वतंत्रता संग्राम में करसोग का योगदान - मास्टर तुलसीराम गुप्ता की कलम से...

  • लेखक की तस्वीर: GDP Singh
    GDP Singh
  • 18 जन॰ 2020
  • 6 मिनट पठन

आत्म परिचय

स्वर्गीय श्री दिलाराम महाजन स्वतंत्रता सेनानी, करसोग,

संस्मरण पर आधारित लेख - ‘उन्हीं की जबानी’

लेखक – मास्टर तुलसी राम गुप्ता,

सुपुत्र श्री दिलाराम महाजन (स्वतंत्रता सेनीनी)

राम चौक, करसोग-175011


(1948 में सुकेत रियासत में उठे प्रजामंडल आंदोलन के समय दिलाराम महाजन जी प्रमुख नेताओं में से एक थे। वह प्रजामंडल के तहसील करसोग के अध्यक्ष थे। 82 वर्षीय बुजुर्ग व उनके सुपुत्र मा. तुलसीराम गुप्ता जी से यह पांडुलिपी अक्तुबर 2019 में प्राप्त हुई जिसको शब्द-ब-शब्द प्रकाशित किय जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ संपादन किया गया है। विक्रमी संवत की अंग्रेजी क्लेंडर में डेट बदलने के लिए www.ashesh.com.np का उपयोग किया गया है। संपादक गगनदीप सिंह)

करसोग - सुकेत सत्यग्रह के स्वतंत्रता सेनानियों का दुर्लभ चित्र (हिमाचल सरकार)

जन्मः मैं 3 भादों सन् 1962 तदनुसार 18 अगस्त 1905 को करसोग निवासी श्री केशवराम के घर में श्रीमती दिलवरु के गर्भ से, करसोग-रियासत सुकेत, में पैदा हुआ।

शिक्षाः उस समय करसोग में कोई स्कूल नहीं था, जिस कारण स्कूल नहीं जा सके। कुछ समय बाद लाला थलूराम ने एक प्राइवेट स्कूल श्री रघुनन्दन शर्मी अध्यापक के निर्देशन में शुरू करवाया गया।

इस स्कूल में पढ़ाई का माध्यम उर्दू था। दो-ढाई साल बाद वह अध्यापक अन्य जगह अच्छी नौकरी मिल जाने के कारण वह यहां से चले गए। हमारा स्कूल बंद हो गया। इसके बाद मैंने टांकरी और हिन्दी का ज्ञान घर पर ही प्राप्त किया।

इस प्रकार मैंने घर पर ही प्राईवेट रूप में लोयर मिडल तक की शिक्षा ग्रहण की।

वैवाहिक स्थितिः मेरी पहली शादी 16 बैसाख वि. सं.1984 तदनुसार 28 अप्रैल 1928 को पांगना की श्रीमती वेगमू से हुई। उसका व्यवहार ठीक नहीं होने के कारण मुझे दूसरी शादी करने पर विवश होना पड़ा। मेरी दूसरी शादी सुंदरनगर से श्रीमती कौरू देवी से सम्पन्न हुई। वह नेक एंव कुशल गृहणी थी। उसने 4 पुत्र एंव 3 पुत्रियों को जन्न दिया। उसने 20-1-2010 विक्रमी संवत तदनुसार 2 मई 1953 को इस दुनिया को त्याग दिया और मुझे 48 वर्ष की आयु में अकेला छोड़ दिया। इसके बाद मैंने शादी नहीं की।

व्यवसाय - मेरे पिता जी की छोटी सी दुकान थी। उसी की आय से परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से होता था। इस व्यवसाय में मैं भी उसका साथ देता था।

माता जी तो बहुत पहले ही इस संसार से विदा ले चुकी थी और वि. सं. 24-12-1997 तदानुसार 6 अप्रैल 1941 को पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। अब छोटे भाई शिवलाल के पालन पोषण की जिम्मेदारी भी मुझ पर आन पड़ी। मैंने उसे पढ़ाया-लिखाया मगर उसका मुझे कोई सहारा न मिला।

सन 1944 में करसोग में डाकघर की स्थापन हुई और मुझे ब्रांच पोस्ट मास्टर नियुक्त किया गया। जिसके वेतन से मेरी आय बढ़ गई।

राजनैतिक यात्राः सन 1945 में पांगना में प्रजा मंडल की स्थापना हुई। करसोग में मैं भी इसका सदस्य बना। मुझे करसोग तहसील सचिव नियुक्त किया गया।

राजा तथा उसके कारिन्दों की बेगार तथा टैक्सों से जनता बहुत दुःखी थी। 7-4- 2003 वि.सं. तदानुसार 22 जुलाई 1946 को राजा लक्ष्मण सैन करसोग दौरे पर आए। इस समय जनता ने अपने दुःखों की पुकार राजा को सुनाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। राजा के ज्ञापन पर गौर करने के बजाए मुझे आईपीसी की धारा 144 के अधीन गिरफ्तार करने के आदेश दिए।

मुझे कैद कर लिया गया और बाद में 1000 रूपए की जमानत मुचलका लेकर जमानत पर छोड़ा गया। यह मुकदम्मा 7 महीनें तक सुंदरनगर में चला था। हर माह दो पेशिंया लगती थी। सुंदरनगर पैदल जाना पड़ता था। श्री प्रीतम सिंह जज ने 16-11-2003 वि. सं. तदानुसार 27 फरवरी 1947 को मुझे बाइज्जत बरी कर दिया।

राजा के जुल्मों के विरुद्ध प्रजा मंडल का काम चलता रहा। इसी कारण सेफ्टी एकट (Safety Act) 1947 की धारा 3 के अधीन मुझे पुनः कैद करके सुंदरनगर की जेल में भेज दिया।

राजा की जेल ए और बी में विभाजित थी। ए श्रेणी में मुझे, अन्य साथी स्वर श्री रत्न सिंह, लटूर सिंह, तेग सिंह, वामदेव, लछमीनंद, भगत राम, जीऊणू, अमरू, पं. नरसिंह दत्त, तुलसीराम, रामकृष्ण, जैलाल, हरीशरण आदि के साथ रखा गया।

बी श्रेणी में सर्व श्री लछमीदास, धीरमल, वीणू, न्याहरू, नरोतम, परमानंद, सीताराम, मड़ेगू आदि थे।

एक कमरे में दो, तीन कैदी रखे जाते थे। पहले तो शौच और खाना खाने के लिए ही कमरे से निकाला जाता था। मगर बाद में सारा दिन कमरे से बाहर रहने की व्यवस्था कर दी गई। यातनाएं दी जाती थी। मगर कई बार यातनाए असाहय हो जाती थी। एक बार गर्म कम्बल न मिलने के कारण सभी कैदियों ने भूख हड़ताल कर दी, जो दस दिन चली। हड़ताल तुड़वाने को राक्षसी मार दी गई। इससे डर कर सर्व श्री वामदेव, लटूरसिंह तथा तेग सिंह ने हड़ताल समाप्त कर दी और सरकार के भेदिए भी बन गए। 9 दिन बाद मांगें मान ली गई तो अगले दिन हड़ताल टूटी।

कैद के अतिरिक्त हम पर कोई और मुकदम्मा नहीं चलाया गया। सात माह की कैद के बाद जेल से छोड़ दिया गया।

जेल से वापिस आने के बाद डाक घर का काम तो वापिस नहीं मिला, पर दुकानदारी से परिवार का पालन पोषण होता रहा।

15 अगस्त 1947 को अंग्रेज तो भारत को स्वतंत्र कर गए, मगर राजा लोग अपना राज्य त्यागना नहीं चाहते थे। प्रजा पर जुल्म ढाए जाते रहे। स. वल्लभ भाई पटेल, गृहमंत्री भारत सरकार ने भारत को राजाओं के चंगुल से मुक्त करवाने के लिए एक योजना बनाई और इस योजना को कार्यन्वित करने का नेतृत्व डा. यशवंत सिंह परमार को सौंपा गया।

2 फरवरी 1948 को तत्तापानी में पं.नरसिंह दत्त, लाला जैलाल, संतराम, ठाकुर केशवराम, कपुरू, मिरजा, प.कांशीराम व सोमकृष्ण शास्त्री आदि सहित 60 कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। इस बैठक में डा. परमार भी सम्मिलित थे। इसमे 8 फरवरी 1948 को चुने हुए सदस्यों की बैठक सोनी (भज्जी) में रखने का निर्णय लिया।

डा. परमार, पं. पद्मदेव, शिवानंद, रमोल, दुर्गा सिंह राठौर, लीला दत्त वर्मा, भास्करानंद, सदाराम चंदेल, दौलत राम, सदाराम चंदेल, दौलत राम सांख्यान, ठाकुर दत्त शास्त्री के अतिरिक्त 250-300 कार्यकर्ता करसोग तहसील के थे।

डा. परमार चाहते थे कि नया सत्याग्रह करसोग वालों के खर्च से सिरमौर से आरंभ किया जाए। मगर करसोग के कार्यर्ताओं ने करसोग से ही इस सत्याग्रह को चलाने का निर्णय लिया।

18 फरवरी 1948 को तत्तापानी, फेरनू और निहरी की पुलिस चौकियों पर सत्यग्राहियों ने कब्जा करके करसोग और पांगना की ओर प्रस्थान किया। जनता का अथाह समूह होते हुए भी किसी सरकारी कर्मचारी को आंदोलन की रूप रेखा की जानकारी न हो सकी। जिससे आंदोलन शांति पूर्वक सफल हो गया।

कैदियों को वेलू ढांक में भेज दिया गया और सत्याग्रही सुंदरनगर की ओर प्रस्थान कर गए। 25 फरवरी 1948 को सत्याग्रही सुंदरनगर पहुंच गए। लगभग 10,000 का जन समूह था वहां 26 फरवरी 1948 को श्री गणेश दत्त और धर्मशाला से श्री कन्हैयालाल भारतीय फौज लेकर पहुंच गए और उन्होंने राजा के मिलिट्री कैम्प पर कब्जा कर लिया। इसी के साथ सारी रियासत पर सत्याग्रहियों का कब्जा हो गया।

हिमाचल निर्माणः सुकेत सत्यग्रह का परिणाम देख कर बिलासपुर के राजा के अतिरिक्त अन्य सभी राजाओं ने अपने राज्य भारत सरकार को सौंप दिए।

31 पहाड़ी रियासतों का विलय करके 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल की स्थापना हुई।

समाचार पत्र एजेन्सीः जब शिमला से करसोग बस चल पड़ी तो करसोग में The Tribune, वीर प्रताप, Times of India आदि समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की एजेन्सी ली।

केन्द्रीय पैन्शन योजनाः भारत सरकार ने 1972 से स्वतंत्रता सेनानियों को पैन्शन देने की योजना लागू की। मैंने भी इसके लिए आवेदन किया। मगर बिना कारण बताए ही मेरा आवेदन अस्विकार कर दिया गया।

ताम्र पत्रः 9 मई 1975 से कांगड़ा में 3 दिन का स्वतंत्रता सेनानियों का सम्मेलन हुआ। जिसमें सभी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मुझे भी ताम्र पत्र दिया गया। ताम्र पत्र पर मेरा नाम दिलाराम मल्होत्रा छपा था। इस ओर जब आयोजकों का ध्यान आकृष्ट किया गया तो भेद खुला कि केंद्र सरकार के रिकार्ड में ‘महाजन’ के स्थान पर ‘मल्होत्रा’ लिखा गया है। उसे महाजन में तब्दील करवाने पर मुझे भी पैन्शन 15 अगस्त 1972 से मिल गई।

सम्मान योजनाः हिमाचल सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में 9 सितंबर 1987 से सम्मान राशी देना आरंभ की।

बस यात्राः 8-10-1987 से हिमाचल पथ परिवहन की बसों में एक सहयोग के साथ मुफ्त यात्रा करने की सुविधा मिल गई।

मतदानः 2004 में 99 वर्ष की आयु में अन्तिमवार लोकसभा चुनाव में मतदान किया। मगर आजकल के हालात देखकर दुःख होता है। ऐसी अवस्था की तो कल्पना भी नही की थी।

उपरोक्त आत्म परिचय उन्ही द्वारा लिखी गई आत्म कथा पर आधारित है। इसी लिए उनके शब्दों में वर्णित है और उनके ही द्वारा वर्णित दर्शाया गया है।

मृत्युः- 100 साल पूरे होने से दस दिन पहले उन्होंने 7 अगस्त 2005 को इस दुनिया से विदाई ले ली।

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