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सुकेत के दूम्ह

  • लेखक की तस्वीर: ahtv desk
    ahtv desk
  • 7 जन॰ 2020
  • 10 मिनट पठन

कथा करसोग


डा. चमनलाल मल्होत्रा


(सुकेत के दूम्ह नामक लेख, डा. चमनलाल मल्होत्रा द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिमाचल का क्रांतिकारिक इतिहास’ से लिया गया। इस पुस्तक का प्रकाशन 1990 में जय श्री प्रिंटर्स पब्लिशर्स शिमाला द्वारा किया गया था। पाठकों की सुविधा के लिए इसमें कुछ संपादन किया गया है। सं.)

‘दूम्ह’ पहाड़ी भाषा का शब्द है जिसका सीधा अर्थ है असहयोग। दूम्ह सामंतवादी युग में इन पहाड़ों में राजनैतिक जागरण की ओर पहला कदम था। यह एक प्रकार का सत्याग्रह था जिसमें प्रजा अपनी शिकायतों पर कोई सुनवाई होती न देख, राज्य की अर्थ-व्यवस्था भंग करने के लिए असहयोग कर देती थी। लोग अपने-अपने घरों और खेतों को छोड़कर राज्य की सीमा पर डेरा डालते थे तथा तब तक घर नहीं लौटते थे जब तक उनकी शिकायतों को दूर नहीं कर दिया जाता था। इससे खेतों में सूखा पड़ता था, भूमि कर देने वाला कोई नहीं होता था, बेगार ठप्प पड़ जाती थी और राज्य की आय में कमी होती थी। इससे एक प्रकार का आर्थिक गतिरोध आ जाता था। राज्यों की आय का मुख्य साधन वन थे या फिर उनसे संबंधित लघु-उद्योग। जब जंगल काटने वाले हाथ न मिलें, शहतीर बनाकर नदी नालों में प्रवाहित करने वाले कुशल व्यक्ति न मिलें, खेतों में हल चलाने वाला कोई न रहे तो स्वयं ही राजस्व अथवा राज्य की आय में कमी पड़ जाती थी। इस आर्थिक संकट से बचने का एक ही रास्ता होता था और वह था जनता की मांगों को स्वीकार कर लेना।

प्रायः ‘दूम्ह’ अहिंसात्मक आंदोलन होता था। लेकिन कभी-कभी जब सरकारी अफसरों के अत्याचार सीमाओं का उल्लंघन कर जाते थे तब जनता हिंसा पर भी उतर आती थी। यह हिंसा केवल भ्रष्ट एवं अत्याचारी अफसरों के घरों को लूटने या उन्हें बंदी बनाने तक सीमित रहती थी। राज्य, राजा या राज्य की जायदाद या इमारतों को जनता कभी हानि नहीं पहुंचाती थी। प्रायः दूम्ही नेता समय रहते राजाओं एवं राणाओं को अपनी मांगों से अवगत करा देते थे। दूम्ह का आयोजन तभी होता था जब राजा उनकी उचित मांगों के प्रति उपेक्षा दिखलाते थे। पहले पहल राजा और राणा लोग इन दूम्हों को खेल मात्र ही समझते रहे लेकिन ज्यों-ज्यों ये दूम्ह जोर पकड़ते जाते, उनकी तंद्रा भी टूटती जाती। जनता जागरण की ओर अग्रसर हो रही थी। अब किसी प्रकार का अन्याय सहने की अपेक्षा लोग सभी तरह के जेल कष्टों को भोगने के लिए तैयार हो रहे थे।

प्रत्येक आंदोलन के दो पक्ष होते हैं – एक सशस्त्र क्रांति के प्रवर्तकों का और दूसरा शांति एवं समझौते में विश्वास रखने वाले लोगों का। दूम्ह में यदा-कदा दोनों पक्षों का समावेश होता था। शांति की हद जब टूट जाती थी तो स्वयंमेव क्रांति पनपती थी।

सुकेत प्रथम दूम्ह – 1862

सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सुकेत के राजा ने अंग्रेजों की जो सहायता की थी उसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करना बंद कर दिया। अंग्रेजों और राजा के बीच इस घनिष्ठता को स्थापित करने में पंडित नरोत्तम का हाथ था। अतः नरोत्तम को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। प्रधानमंत्री अंग्रेजों का पिट्ठू था। उसका राजा पर पूरा प्रभाव था और वह मनमानी करने से नहीं चूकता था। राजा उग्रसेन उसके हाथों की कठपुतली मात्र थे।

वजीर नरोत्तम ने राज्य में कई कर लगाए जिससे न केवल लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी अपितु उनके धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप होने लगा। उसने एक कानून बनाया जिसके अंतर्गत विधवाओं को बेचकर जो धनराशि मिलती थी वह राजकोष में जमा करनी पड़ती थी। इसी सिलसिले में वजीर ने एक ब्राह्मण पर भारी जुर्माना लगाया जिससे इस काले कानून के विरुद्ध लोगों की धार्मिक भावनाएं और जाग उठीं। ब्राह्मण ने राजा के पास शिकायत की, जिसके फलस्वरूप राजा उग्रसेन ने उसका जुर्मान माफ कर दिया। लेकिन वजीर ने राजाओं का उल्लंघन कर उस ब्राह्मण की पिटाई की और उससे पूरा जुर्माना लिया।

नरोत्तम पुरोहित लगातार वजीर बना हुआ था वह नरसिंह मंदिर का भी वजीर था। उसने कानून बनाया कि विधवाओं को बेचना चाहिए और उससे जो आमदनी होगी उसको राज्य व नरसिंह मंदिर को दिया जाना चाहिए। उसने उस पैसे से एक दुर्गा मंदिर का भी निर्माण किया।[1]

लोग राजा के पास वजीर के अत्याचारों की शिकायत लेकर गए, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं हुई। तब जनता युवराज उग्रसेन के पास गई जिसने उनकी शिकायतों को दूर करने का आश्वासन दिया। युवराज राजा से मिला और वजीर को बंदी बनाने की मांग की क्योंकि उसने राजाज्ञा का उल्लंघन कर स्वेच्छाचार का परिचय दिया था। राजा ने वजीर पर लगे भ्रष्टाचार एवं अन्यायपूर्ण व्यवहार की न्यायिक जांच करने का आश्वासन दिया, लेकिन डेढ़ वर्षों तक वे इस कार्यान्वित नहीं कर सके। इससे क्षुब्द होकर टीका रुद्रसेन राज्य छोड़कर चला गया।

रुद्र सेन की अपने बाप के साथ नहीं बनती थी, टिका रुद्र सेन अपने बाप पर भरोषा नहीं करता था क्योंकि अपने बाप की दूसरी पत्नी के बेटे से वह डरता था, जिसने राज्य के प्रमुख प्रशासनिक पदों पर अपना कब्जा जमा लिया था। इस लिए रुद्र सेन को 25 साल राज्य से बाहर रहना पड़ा।[2]

वजीर नरोत्तम ने युवराज (टीका) के समर्थकों को तंग करना प्रारंभ किया जिसके फलस्वरूप मंत्री पत्त और ईशरी कायथ को अपनी जान बचाकर मंडी भागना पड़ा। इससे सुकेत रियासत में वजीर को लेकर असंतोष की लहर दौड़ पड़ी। लोगों ने राजा के पास वजीर को पद से हटाने और युवराज को बुलाने की मांग रखी। विवश होकर राजा ने वजीर नरोत्तम को पद से हटा दिया और उसके स्थान पर धुंगल को वजीर नियुक्त कर दिया।

वजीर धुंगल नरोत्तम से भी एक हाथ आगे निकला। वह डंडे के जोर से राज-काज चलाने लगा। निर्दोष व्यक्तियों पर भारी जुर्माना लगाकर वजीर धुंगल उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देने लगा। इससे क्षुप्द हो जनता के प्रतिनिधियों ने गुप्त मंत्रणा करके दूम्ह का आयोजन किया। लोगों ने भूमिकर देना बंद कर दिया और राजाज्ञा को ठुकराने लगे। बेगार करने के लिए व्यक्ति मिलने असंभव हो गए जिससे ठेकेदारों के काम में रुकावटें पड़ी। एक तरह से राजकाज ठप्प पड़ गया। धुंगल वजीर इस दूम्ह को कुचलने सिपाहियों सहित गढ़चवासी पहुंचा जो दूम्हियों का मुख्य केंद्र था। जनता ने वजीर को बंदी बना लिया। बारह दिन तक धुंगल जनता की हिरासत में रहा। उसकी सिटि-पिटी गुम हो गई। जैसे ही यह सूचना राजा तक पहुंची उन्होंने जनता की मांगों को स्वीकर करने का आश्वासन दिया और धुंगल को छोड़ने का आग्रह किया। राजा की आज्ञा को जनता टाल न सकी और वजीर रिहा कर दिया गया। शीघ्र ही राजा उग्रसेन गढ़चवासी दौरे पर निकले। उन्होंने धुंगल के विरुद्ध लगे आरोपों की जांच की। वजीर को दोषी पाकर राजा ने उसे गिरफ्तार करने की आज्ञा दी। धुंगल को नौ मास का कठोर कारवास मिला और बीस हजार रुपये जुर्माना लगाया गया। उसके बाद उसके भाई लौंगू को वजीर नियुक्त किया गया। लौंगू युवराज का विश्वासपात्र था तथा जनता को साथ उसकी सहानुभूति थी। थोड़े समय के लिए जनता का रोष समाप्त हुआ।

वजीर लौंगू ने राज्य की व्यवस्था ठीक करके राज्य में शांति स्थापित की लेकिन उसके विरुद्ध दूसरे मुसाहिब राजा के कान भरने लगे। वजीर का झुकाव युवराज की ओर था। उग्रसेन युवराज के कट्टर विरोधी थे। अतः राजा ने राज्य भार अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने फिर से लोगों पर नए कर लगाने शुरू कर दिए। सन 1863 ई. में वे रियासत के दौरे पर निकले तथा लोगों पर 72 हजार रुपया जुर्माना किया जिसकी वसूली के लिए कड़ाई बरती जाने लगी। रियासत में इतना आतंक फैला कि लोग सुकेत छोड़ भागने लगे। जनता के प्रतिनिधि भाग कर हरीपुर (गुलेर) पहुंचे जहां युवराज रुद्रसेन ठहरे हुए थे तथा उनसे इस स्थिति से जनता को उबराने के लिए प्रार्थना की। आतंकवाद इतना फैला कि वजीर लौंगू को जान बचाने के लिए कहलूर (बिलासपुर) भागना पड़ा। वजीर के समर्थकों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिय गया। सारी रियासत में भय छा गया। कोई भी स्वयं को सुरक्षित नहीं समझता था। अतः हथियारबंद क्रांति की योजनाएं बनने लगी।

1876 में उग्रसेन ने इमला-बिमला खड पर 1876 में शिव जी का मंदिर बनवाया।[3] उसी साल लकवे की बीमारी के कारण में उग्रसेन की मृत्यु हो गई।

सुकेत दूसरा दूम्ह - 1877[4]

राजा उग्र सेन की मृत्यु के बाद रुद्र सेन रियासत में वापिस आ गया और अंग्रेजों ने उसको राजा स्थापित कर दिया। उसने अपने बाप की मृत्यु के बाद राजा नियमों और रिती-रिवाजों को मानने से इनकार कर दिया। जब राजा के मरने पर पारंपरिक रूप से सुकेत रियासत के तमाम पुरुषों ने अपने बाल मुंडवा लिए तो राजा ने यह नहीं किया। कुछ दिन के बाद ही उसने मीट भी खाना शुरू कर दिया। अपने पिता द्वारा नियुक्त किए गए प्रशासनिक अधिकारियों को एक-एक कर उसने हटाना शुरू कर दिया। उसने वजीर के रूप में रामदत्त मल को नियुक्त किया और प्रशासनिक दायित्व उसको सौंप दिया। पूरी रियासत से रामदत्त मल लगान, टैक्स आदि वसूल करता और उसको एक हिस्सा राजा को प्रबंध के लिए देता था। नया वजीर बहुत ही निर्दयी था, सुकेत में नियुक्ति से पहले वह कपुरथला रियासत मे था जहां कुछ हजार रुपयों के गबन के आरोप में उसको दंड दिया गया था। उसने अपने पंजाब के मैदानों के सगे-संबंधियों को यहां सुकेत में नियुक्त करना शुरू कर दिया। वहीं रुद्र सेन अपने पिता के समय प्रशासन में रहे अधिकारियों पर बहुत क्रोधित था क्योंकि उन्होंने अपने बाप के साथ झगड़े में उसका साथ नहीं दिया था। उसको इसका भी दुख था कि अंग्रेज भी उसको बाप के साथ ही खड़े थे।

रामदत्त मल मुगल काल के इजारेदार की तरह कार्य कर रहा था। सामान्य से कहीं अधिक लगान तय कर दिया गया। पारंपरिक रूप से पहाड़ी इलाकों में बहुत कम लगान दिया जाता है क्योंकि अतिरिक्त बहुत कम होता है, इसकी बजाए पहाड़ी रियासतों को सीमाओं की रक्षा करनी होती है। ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद पहाड़ी राजाओं की आपस में लड़ाई बंद हो गई। इसने राजस्व बढ़ाने के लिए रास्ता साफ किया। क्योंकि अब युद्ध खर्च नहीं रहा था। लेकिन पहाड़ी खेती कमजोर होने के चलते यह सब करना बहुत मुश्किल था। रामदत्त मल ने तमाम टैक्स, लगान, कर आदि बल्ह घाटी की जमीन के अनुसार तय कर दिए, जिसको हर छमाही पर जमा करना होता था। यह ऐतिहासिक रूप से पूरी रियासत के लिए अभूतपूर्व था। कर्मचारी इसको पूरी रियासत में एक ही दर से जमा करते थे। फसल खराब होने, मौसम की मार, सूखा, बाढ़ आदि से प्रभावित होने पर भी लगान की तय राशि किसानों को चुकानी पड़ती थी।

फरयादियों की राजा एक ना सुनता, उनको रामदत्त मल के पास भेज देता, वह किसानों व फरियादों के साथ बहुत बुरा बर्ताव करता था। किसानों से लगान वसूल करने के हर हथकंडे अपनाए जाते थे। उनमें 2 अन्ने से एक रुपये तक का जुर्माना (दंड) भी होता था, जिसको नकद, वस्तु या मजदूरी के रूप में चुकाना पड़ता था। जब राजा ने एक न सुनी तो जनता जालंधर के कमीश्नर के पास फरियाद लेकर पहुंची। लेकिन इसमें ज्यादातर राजा के विरोधी अधिकारियों, कर्मचारियों के हस्ताक्षर थे तो इसकी ज्यादा सुनवाई नहीं हुई। राजा की कोर्ट में 60 किसान परिवारों पर दंड लगाया गया। किसानों को शक था कि यह दंड रामदत्त मल के अत्याचारों के खिलाफ भेजे गये प्रतिनिधि मंडल के कारण लगी है। हेमंत ऋतु की फसल के समय अधिकारियों ने अत्याधिक दर से लगान वसूला। इस आदेश के साथ संयोगवश रामदत्त मल ने जिस व्यक्ति को तहसीलदार नियुक्त किया, वह अंग्रेस सरकार द्वारा निकाला गया कर्मचारी था जिसने एक किसान की पत्नी के साथ गलत व्यवहार किया था। पश्चिम हिमालय में सरकारी अधिकारियों के द्वारा यौन हिंसा और बलात्कार आम नहीं थे, जैसे की अन्य ब्रिटिश अधीन अन्य रियासतों में होता था। किसानों द्वारा ऐसी बहुत सी शिकायतें पहाड़ी तहसिलों में से दर्ज करवाई जाने लगी जिसमें महिलाओं के साथ यौन हिंसा और बलात्कार किए जाते थे। यह सब नए अधिकारी राम दत्त मल द्वारा पंजाब से लाए गए थे।

जिन परिवारों पर राजा की कोर्ट ने सम्मन भेजे थे, उन्होंने अपने केश लड़ने के लिए एक बनेड़ में एक मीटिंग बुलाई, इसमें यह तय हुआ कि जिन को सम्मन हुआ है उनमें से प्रभावित गौत्र के हर परिवार से एक प्रतिनिधि दरबार में केस के लिए हाजिर हो। जब यह घटनाक्रम जारी था तो एक महिला को उठाने और उसके साथ बलात्कार का समाचार आया। इसने किसानों का गुस्सा और बढ़ा दिया। राम दत्त मल व उसके कर्मचारियों के अत्याचारों के खिलाफ जिन विभिन्न गौत्रों व परिवारों के नेताओं को एकजुट किया उन्में से सबसे महत्वपूर्ण नाम था दित्तो जो कि दस्तावेजों के अनुसार वह शिमला में सर एडवर्ड बैले का नौकर रह चुका था।

राम दत्त मल व तमाम बाहरी कर्माचारियों के खिलाफ किसानों का गुस्सा फूट पड़ा। बलात्कार की खबर जंगल की आग की तरफ फेल गई। चारों और किसान भड़क उठे। बनेड़ से पांच-छह हजार की संख्या में व्यक्ति बनेड़ से राजा के दरबार की तरफ कूच करने लगे। रामदत्त मल सुकेत से भाग खड़ा हुआ, राजा के हथियारबंद अधिकारी और गार्ड जो कि अधिकतर ‘बाहरी’ थे ने किसानों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। यह खबर सुकेत के बाहर अंग्रेज अधिकारियों तक पहुंची, अंग्रेजों ने राजा को गोली चलाने से रोक दिया। जालंधर के कमिश्नर ने मंडी, बिलासपुर और नदौन से और सैनिक भेज कर इलाके में शांति और कानून की स्थापना की।

लेकिन यह संयुक्त सेना भी बनेड़ में किसानों की ताकत के आगे बौनी साबित हुई। किसानों विद्रोहियों ने सुकेत की सीमाओं की चारों तरफ से नाकेबंदी कर दी, वह किसी भी व्यक्ति और समाचार, चिट्ठी पत्री को बाहर नहीं जाने दे रहे थे। किसानों को अंग्रेज अधिकारियों व सैनिकों को तभी अंदर जाने दिया जब वह संतुष्ट हो गए कि वह उनके राजा की मदद करेगें और अत्याचारों से मुक्ति दिलाएंगे। राज्य का सशस्त्रागार, प्रशासनिक भवन, जेल आदि सब किसान विद्रोहियों के कब्जे में थे। जब किसान वजीर के घर पर कब्जा करने गए तो उन्होंने उसकी पत्नी के जेवर उतरवा लिए कि यह सब सुकेत रियासत की संपत्ति है। लोगों ने दो दिनों तक कब्जा बनाए रखा और यह इंतजार करने लगे कि अंग्रेज आकर उनके मसले को हल कर देंगे।

ब्रिटिश जालंधर कमिश्नर मौके पर पहुंचे और उसने किसानों से सशस्त्रागार पर से कब्जा ले लिया और विद्रोह के मुख्य नेताओं को आत्मसमर्पण करने की बात कही। किसान मान गए। राजा चाहता था कि विद्रोही नेताओं को मौत की सजा दी जाए और बाकि विद्रोहियों को लंबे समय तक जेल में रखा जाए। कमिश्नर की अदालत ने महत्वपूर्ण नेता दित्तो को पांच साल की सजा दी बाकियों को इस से कम सजा हुई। विद्रोहियों के समपूर्ण इलाके पर 10 हजार रूपए का जुर्माना लगाया गया, जिसको उनके लगान के साथ दो किस्तों में जमा करवाना था। इस पैसे को पहाड़ी इलाके में सड़क बनाने पर खर्च करना तय किया गया।

सुकेत के राजा ने अपना राज्य छोड़ दिया क्योंकि वह अपनी मर्जी के अनुसार न तो विद्रोहियों को सजा दे पाया और न ही अंग्रेजों का विश्वास हासिल कर पाया। उसके अंदर नैतिक साहस नहीं रहा कि वह विद्रोहियों पर शासन कर सके। अंग्रेजों की दखलंदाजी को वह सहन नहीं कर पाया।

अंग्रेजों ने भ्रष्ट अफसरों तथा कर्मचारियों को दंड दिया और राजा रुद्रसेन को (1879 संपादक) राजगद्दी से हटाकर उसके लड़के अरिमर्दनसेन को राजगद्दी पर बिठाया। कांगड़ा के एक कानूनगो हरदयाल सिंह को तहसीलदार बनाकर सुकेत भेजा गया जिसने भूमिकर में सुधार करके राज्य में शांति स्थापित की। अंग्रेजों द्वारा 1888 ने चवासी, बगड़ा, रामगढ़ और कुजनू के लिए प्रति रूपए में से अढाई अन्ना और बाकि राज्य में दो आन्ना भूमि लगान कम किया गया था।

[1] History of the Punjab hill states vol. 1 by Hutchison S, p. 369


[2] Becoming india, peasant rebellions and royal reconciliation, alam


[3] History of the Punjab hill states vol. 1 by Hutchison s. P. 370


[4] Becoming India Western Himalayas under British Rule, Aniket Alam की पुस्तक पर आधारित लेख।

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