कोरोना वायरस – साम्राज्यवाद को नहीं निकाल पायेगा महामंदी से! - एक आंकलन
- ahtv desk
- 8 अप्रैल 2020
- 19 मिनट पठन

कोरोना वायरस – साम्राज्यवाद को नहीं निकाल पायेगा महामंदी से!
कोरोना के खिलाफ लड़ने के नाम पर फासीवाद मजबूत हो रहा है।
पैकेजों से नहीं मजदूर वर्ग की मुक्ति क्रांति से ही होगी।
स्टे होम से दुनिया को सुरक्षित नहीं किया जा सकता – यह जंग आउट ऑफ होम ही लड़ी जाएगी।
Ranjot
Law Department, HPU, Shimla
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चीन में पहला नोवेल कोरोना (कोविड19) केस 8 दिसंबर 2019 को हुबेई प्रवेंसी के वुहान में दर्ज किया गया। लेकिन चीन के विख्यात दैनिक के अनुसार चीन में पहला मामला (पेसेंट जीरो) 17 नवंबर सामने आया था। 1 दिसंबर से पहले वुहान के जीनयीनतान अस्पताल में कुछ रोगियों का इलाज किया गया था, इस दौरान इस संक्रमण का पता लगा था। इस बात की पुष्टि विज्ञान पत्रिका दा लासेंट ने भी की है। लेकिन चीन और अमेरिका दोनों ही एक दूसरे कोरोना वायरस इजाद करने का आरोप लगाते रहे हैं। चीन के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे वुहान वायरस या चीनी वायरस कह रहे हैं वहीं चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने बयान जारी किया था कि अमेरिकी सेना द्वारा वुहान में वायरस लाया गया है।
अब कोरोना किसने फैलाया और किसने इजाद किया और क्यों किया या यह प्राकृतिक रूप से मौजूद था या कृत्रिम रूप से तैयार किया गया, क्या यह जैविक हथियार के रूप में पैदा किया गया, इस पर इतना जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसके बारे में दुनिया के सामने सच्चाई आने में बहुत लंबा समय लगेगा और बहुत बार ऐसी सच्चाई सामने आती भी नहीं है। इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि साम्राज्यवाद अपने मुनाफे के लिए ऐसा कर सकता है। इस के साक्ष्य इतिहास में दर्ज हैं और अपने आर्थिक संकट से उभरने के लिए, राजनीतिक रूप से अपनी सत्ता को स्थिर बनाए रखने के लिए मरणासन्न पूंजीवाद किसी भी हद तक जा सकता है।
दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पायेगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट नहीं टाल पायेगा। अवश्य ही कोरोना के बाद दुनिया अभूतपूर्व महामंदी का सामना करेगी और महामंदी या तो फासीवाद पैदा करेगी या फिर क्रांतियां।
हम इस लेख में कोरोना की क्रोनोलोजी समझने की कोशिश करेंगे और मजदूर वर्ग या उसकी मुक्ति के लिये कार्यरत संगठनों, पार्टियों, कार्यकर्ताओं की क्या जिम्मेदारियां बनती हैं इस पर चर्चा करेंगे। क्योंकि क्रांतिकारी होने का दंभ भरने वाले लोग भी स्टे होम का नारा लगा रहे हैं और यह भूल रहे हैं कि जनता की सेवा करते हुए जो मौत आती है वह हिमालय से भी भारी और कायरों की तरह दुबक कर जो मौत आती है वह पंख से भी हल्की होती है।
कोरोना वायरस क्या है?

विज्ञान की भाषा में नोवेल कोरोना एक विषाणुओं (Virus) का समूह है जो स्तनधारी (Mammals) प्राणियों और पक्षियों में पाया जाता है। इस विषाणु यानी वायरस के कारण श्वांस तंत्र (Respiratory system) में संक्रमण (infection) पैदा हो सकता है जिसमें हल्की सर्दी-जुकाम से लेकर मौत तक हो जाती है। यह उन लोगों को अधिक निशाना बनाता है जिसमें पहले से ही फेफड़े संबंधी रोग होते हैं, किडनी या दिल की बिमारियां होती है। अभी तक के शोधों के मुताबिक मरने वालों में अधिक संख्या 60 साल से अधिक के बुजुर्गों की होती है। चीन के वुहान शहर के डाक्टर जब दिसंबर में कुछ मरीजों का इलाज कर रहे थे तब उनको यह नया वायरस समझ में आया। कोरोना वायरस पहले भी होता था लेकिन यह उस से भिन्न था इस लिये इसका नाम नोवेल कोरोना वायरस या कोविड-एन19 पड़ा। लैटिन भाषा में कोरोना का मतलब क्राउन यानी ताज होता है और इसकी आकृति ताज पर उगे कांटों जैसी थी इस लिए इसको कोरोना कहा गया। किसी भी तरह के विषाणुओं से लड़ने के लिए शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) ही काम आती है। इस लिये इस वायरस का इलाज रोग के लक्षणों के आधार पर किया जाता है, ताकि रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत रहे। इस के अलावा विषाणु जनित रोग जैसे स्वाईन फलू, सार्स-2, इन्फलूंजा, एचआईवी, मलेरिया रोग में दी जाने वाली दवाएं भी इस वायरस के मरीजों पर कार्य कर रही हैं। सबसे बड़ा खौफ इस बात का फैलाया जा रहा है कि इस की कोई दवाई नहीं है। यह बात आधी सच है। क्योंकि अब तक दुनिया में अब तक इस विषाणु से 12 लाख 73 हजार 990 लोग ग्रसित हुए हैं जिसमें से 2 लाख, 60 हजार 247 लोग ठीक हो चुके हैं और 69 हजार 444 लोगों की मृत्यु हुई है। वहीं भारत में 4 हजार लोग इस के शिकार हैं वहीं 292 लोग ठिक हुए हैं और 109 की मृत्यु हुई है।[1] अगर दवा नहीं होती तो इतने लोग ठीक नहीं होते। इस में बिमारी में कई दवाएं काम कर रही हैं। लेकिन यह बात भी ठीक है कि इसकी वैक्सिन नहीं है। लेकिन प्रचार इस तरह से किया जा रहा है कि इसका दवा नहीं है।
दवा और वैक्सिन में क्या अंतर होता है?

बड़े पैमाने पर वैक्सिन का इस्तेमाल 16वीं सदी के अंदर चीन में दिखाई देता है। इसके बाद 1796 में ब्रिटिश डाक्टर एडवर्ड जेनेर ने छोटी माता की वैक्सिन तैयार की थी जो सर्वाधिक प्रचलित हुई। शरीर के अंदर रोग प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। अगर हमारे शरीर में कोई हानिकारिक विषाणु या किटाणु (bacteria) प्रवेश कर जाता है तो शरीर अपने आप उसके विरुद्ध रोग प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न कर लेता है और हानिकारण विषाणु या किटाणु को नष्ट कर देता है। लेकिन शरीर को नये विषाणु या जीवाणु के विरोध अपने अंदर प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में कई दिन लग जाते हैं, अगर रोगी की उस दौरान मृत्यु न हो तो प्रतिरक्षा प्रणाली विकसित हो जाती है। यह निर्भर करता है रोगी की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली यानी उसके इम्यून सिस्टम पर। इस लिये कोई भी दवाई किसी बीमारी का इलाज नहीं करती बल्कि वह शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने, बनाये रखने में शरीर की मदद करती है। रोग को शरीर अपने आप नष्ट करता है। इसके विपरित वैक्सिन का मुख्य कार्य रोग पैदा होने से पहले ही वैक्सिन देकर उसको खत्म कर देना होता है। वैक्सिन का निर्माण इस आधार पर किया गया था कि बहुत सारे रोग ऐसे होते हैं जो एक बार होकर फिर बहुत समय बाद होते हैं, जैसे कुछ रोग बचपन में हो जाए तो वह बाद में जवानी में होते हैं। वैज्ञानिकों ने खोज लिया कि यह शरीर के अंदर विषाणु या किटाणुओं के खिलाफ पैदा हुई रोग प्रतिरोध क्षमता का नतीजा है और इस आधार पर पहले ही शरीर के अंदर वह मृत विषाणु, किटाणु प्रवेश करवा दिये जाते हैं जिस से वह रोग पैदा ही ना हो। जैसे चेचक के टीके के लिए जीवीत बछड़े या भेड़ की खाल पर संक्रमण करवाया कर जो पीप (फोड़े से निकले वाला तरल पदार्थ) या खुरचन होती है उस से टीका बनाय जाता है, यानी चेचक के प्रतिरोधी विषाणु जमा कर मानव में प्रवेश करवाये जाते हैं। यह टीका बच्चों को तीन साल की अवस्था में लगाया जाता है, विदेश यात्रा करने वालों को भी यह टीका लगाया जाता है और रोगी के अंदर 8 दिनों बाद रोग प्रतिरोध क्षमता पैदा हो जाती है जो कई सालों तक कायम रहती है।
दवाई का कार्य तात्कालिक होता है, मुख्य रूप से दवा शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती देने के लिए बाहर से दिया जाने वाला सहारा होती है। इसके विपरीत वैक्सिन लंबी अवधी तक कार्य करती है, बिमारी होने ही नहीं देती। लेकिन कोरोना के संबंध में यह भ्रांति फैलाई जा रही है कि इसकी कोई दवा नहीं है। इस लिये हमें दवा और वैक्सिन का अर्थ पता होना चाहिए। दवा लक्षणों के आधार पर मरीज का इलाज करती है और दवा से भी कोरोना का मरीज बच सकता है। यह जरूरी नहीं है कि जब वैक्सिन आएगी तभी रोगी का इलाज होगा। बिना वैक्सिन के भी कोरोना के मरीज ठीक हो रहे हैं। कोरोना के मरीज दवा या उनकी खुद की रोग प्रतिरोध क्षमता, हाई प्रोटिन डाईट, अंडा, दूध, पनीर आदि के बल पर ठीक हो रहे हैं। 60 के पार जिन रोगियों की रोग प्रतिरोध क्षमता कमजोर होती है, जिनमें पहले से कोई लंबी बिमारी होती है वह इसका शिकार आसानी से हो रहे हैं।
वैक्सिन कैसे काम करती है एक उदाहरण चेचक की रोकथाम के लिए बचपन में ही चेचक की वैक्सिन लगा दी जाती है। इस वैक्सिन के अंदर चेचक के मरे हुए विषाणु होते हैं। उसे बच्चे के शरीर में टीके के तौर पर प्रवेश करवा दिया जाता है। शरीर में जब चेचक के मरे हुए किटाणु पहुंचते हैं तो शरीर कुछ दिनों में उनके खिलाफ रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेता है। वह उन किटाणुओं के असर को समाप्त कर देता है। अगर जिंदा किटाणु प्रवेश करवाए जाएं तो व्यक्ति रोगी हो जाता है फिर रोगी के शरीर को उनके खिलाफ लड़ने के लिए रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में अधिक समय लग जाता है। अगर वैक्सिन के रूप में दे दी जाए तो यह क्षमता पहले ही शरीर विकसित कर लेता है। वैक्सिन नाक के जरिए ड्राप के रूप में या टीके के रूप में शरीर में प्रवेश करवाई जाती है।
कोरोना – साम्राज्यवाद को उसकी महामंदी से नहीं निकाल पायेगा
हाल ही में UN Department of Economic and Social Affairs (DESA) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 के विस्तार ने वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नुक्सान पहुंचाया है। 100 देश अपनी सीमाएं बंद कर चुके हैं। लोगों की आवाजाही और पर्यटन बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। वैश्विक अर्थ व्यवस्था 2020 में 0.9 प्रतिशत पर सिमट सकती है। फिलहाल दुनिया की विकास दर 2.5 प्रतिशत है।[2] यह 2009 की वैश्विक मंदी से भी खतरनाक स्थिती होगी जब दुनिया की विकास दर 1.7 प्रतिशत पर सिमिट गई थी। रिपोर्ट का कहना है कि – इन देशों के लाखों मजदूर के अंदर अपनी नौकरी खोने का डर देखा जा रहा है। सरकारें अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए बड़े प्रोत्साहन पैकजों पर विचार कर रही हैं और यह रोलआऊट पैकेट वैश्विक अर्थव्यस्था को संभावित गहरी मंदी में डूबो सकते हैं।
दुनिया भर के साम्राज्यवादी देश खासकर अमेरिका 2008 के बाद से ही लगातार आर्थिक मंदी से घिरा हुआ है। चीनी सामाजिक साम्राज्यवाद अफ्रेरिका, एशिया के छोटे-छोटे देशों की अथह प्राकृतिक संपदा का दोहन कर और अपने देश की सस्ती श्रम शक्ति को निचोड़ कर उभर कर सामने आ रहा है। योपोरिय यूनियन टूट रही है और उनके अंतरविरोध भी तेज हो रहे हैं। खास बात यह देखने को मिल रही है कि दुनिया के बाजार पर कब्जा जमाने के लिए आपा-धापी मची हुई है। अमेरिका ने इरान, इराक, अफ्गानीस्तान, सिरिया, लैटिन अमेरिका आदि देशों को नर्क के समान बना दिया है। चीन अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज व सहायता के जाल में फंसा रहा है। अमेरिका और चीन के बीच लगातार ट्रेड वार जारी है। इसका मुख्य मकसद दुनिया के बाजारों पर अपनी-अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है।
दुनिया की आर्थिक मंदी के चलते लगातार नौकरियों में कटौती होती जा रही है। बड़ै पैमाने पर बेरोजगारी फेल रही है। सरकार नये-नये टैक्स लगा रही हैं और नागरिक सुविधाओं में कटौती कर रही हैं। अमेरिका, चीन जैसे देश अपनी मंदी से उबरने के लिए नये-नये बाजार तलाश रहे हैं जिस के चलते विकासशील देशों में तीव्र आर्थिक संकट पैदा हो रहा है। भारत के सार्वजनिक उद्योग धंधे बुरी तरह से तबाह हुए हैं। बैंकिंग सैक्टर जिस तरह से डूब रहा है इसका असर अर्थव्यवस्था पर गहर पड़ने वाला है। पीछले साल बैंकों का एनपीए 8,06,412 करोड़ था जिस में लगातार बढ़ौतरी देखी जा रही है। इतना ही नहीं बैंकों की संख्या विलय के बाद चार रह गई है। इसका मतलब है कि वह बैंक डूब चुके थे। सरकार लिपापोती कर उनको बनाए रखे हुए हैं।
इस सबका बड़ा कारण यह है कि देश की बड़ी-बड़ी कंपनियां और पूंजीपतियों ने बैंकों से जो लोन लिये थे उनको चुकता नहीं कर रहे हैं। देश में बढ़ी बेरोजगारी और कृषि में जारी संकट के चलते मांग नहीं बढ़ रही है और कंपनियां लगातार अपना उत्पादन घटा रही हैं। उत्पादन घटने से मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं। बेरोजगार मजदूर, किसान, नौजवान क्यां करेंगे। यह सरकार को भी पता है और उनको आकाओं को भी पता है। देश के कृषि, विनिर्माण क्षेत्र, ट्रांसपोर्ट, रियल इस्टेट, आटो-मोबाईल, बैंकिंग क्षेत्र आदि लगातार पीछड़ते जा रहे हैं।
पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के चलते लगातार मजदूर, किसान, नौजवान, छात्र अपने-अपने देश की सरकारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पीछले साल यह सिलसिला लगातार जारी रहा। सबसे ज्यादा खतरे की घंटी चीन के लिए तब बजी जब हांगकांग में लोग अपनी स्वायत्ता को लेकर प्रदर्शन पर प्रदर्शन कर रहे थे। उनको रोकने में चीन की साम्राज्यवादी सरकार नाकाम हो रही थी। इसी तरफ फ्रांस, अलजिरिया, लैटिन अमेरिका, सिरिया, इरान, इराक, तुर्की हर जगह लोग अपने देश की सरकारों के खिलाफ लड़े। भारत में दशकों बाद राष्ट्रव्यापी आंदोलन देखा गया। एनपीआर, एनआरसी और सीएए जैसे कानूनों के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर सरकार के खिलाफ विद्रोह कर उठा था। इस विद्रोह को कुचलने के लिए दक्षिणपंथी फासीवादी सरकार द्वारा किया गया दमन, छात्रों पर किए गये हमले, मुस्लिम बस्तियों पर किए गये हमले भी काम नहीं आये। लोग रूक नहीं रहे थे। अमेरिका में भी लगातार ट्रंप की लोकप्रियता लगातार घट रही थी। अफ्गानीस्तान में तालिबान के साथ समझौता नहीं हो पा रहा, वह अपने सैनिकों को नहीं निकाल पा रहा वहीं चीन के साथ ट्रंप द्वारा छेड़ा गया ट्रेड वार अमेरिका के लिये घाटे का सौदा साबित होता जा रहा था। ट्रेड वार के चलते चीन की अर्थव्यवस्था पीछले तीस सालों में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। वहां का जीडीपी महज 6.1 प्रतिशत रह गया है।[3] ओक्सफोर्ड इक्नोमिक्स के मुख्य अर्थशास्त्री लाउस कूजिस कहते हैं कि 2019 में अमेरिका के साथ ट्रेड वार के चलते चीन की विकास दर उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हुई है, उसका निर्यात घट गया है, कमजोर हो रहा है, विनिर्माण क्षेत्र में निवेश कमजोर हुआ है।
यह कोरोना से पहले की क्रोनोलोजी है। देशों की सरकारों अपनी जनता से डरी हुई थी। सरकारों की लोकप्रियता गिरती जा रही थी। दुनिया भर की सरकारें खासकर चीन, भारत, अमेरिका आदि लोगों की आकंक्षाओं को दबाने के लिए फासीवादी हथकंडे अपना रहे थे। कोरोना ने काले कानूनों को लागू करने, लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करने, हर तरह की हुक्म अदूली करने, सरकार के विरोध में कुछ भी बोलने वालों के को कुचलने के रास्ते खोल दिए हैं। एक तरह से कहा जाए तो कोरोना फासीवाद को मजबूत करने के लिए साम्राज्यवादियों और देश के शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत हथियार बनकर सामने आ रहा है।
बीबीसी संवादाता रेहान फजल ने अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है कि शायद कुछ देश उतने लोकतांत्रिक नहीं रहेंगे जितने मार्च 2020 से पहले हुआ करते थे।[4] उनका इसारा इस बात की तरफ है कि दुनिया भर की सरकारें जिस तरह से अंधाधुंद घोषणाएं कर रही हैं, प्रतिबंध लगा रही हैं, पुलिस, फौज को खुली छूट दे रही है, पुलिस-फौज बेकसूर लोगों को मार-पीट रही है, एक तरह से नागरिक प्रशासन की बजाए पुलिस और फौज ने जगह ले ली है। शायद यह आने वाले समय में स्थाई हो जाए। लोगों को इस बात का एहसास करवाया जा रहा है कि यह सब आपकी सुरक्षा के लिए जरूरी है।
भारत में जब प्रधानमंत्री द्वारा लाकडाउन और कर्फ्यू की घोषणा की गयी तो ऐसा लग रहा था जैसे देश की सरकार की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई। जिस राजनीतिक आक्रोश को, संघर्ष को वह कुचल नहीं पा रही थी, देश व्यापी विरोध प्रदर्शनों की नई रीत से जैसे वह डरी हुई थी उसको कोरोना के संकट ने एक झटके में बदल दिया। पैदल घरों की तरफ लौट रहे मजदूरों को दवा, पानी, राशन देने की बजाए पुलिस को खुले सांडों की तरह छोड़ दिया जैसे कि मजदूर ही इस बिमारी का मुख्य कारण हो, फिर इसक बाद तबलीगी जमात के तौर पर शासक वर्गीय सत्ताधारी पार्टी को अपना मनपसंद दुश्मन भी मिल ही गया। और ऐसा लगता है जैसे नाक के नीचे दिल्ली में जमावड़ा बनाए रखना और कर्फ्यू के चरम पर उनको दिल्ली से निकाल कर पूरे देश में फैलाने किसी साजिश का हिस्सा रहा हो। इस के बाद दक्षिणपंथी पार्टी द्वारा उनको मुख्य दुश्मन के तौर पर प्रचारित करना पूरे सोशल मिडिया पर छाया रहा। बीबीसी अपनी रिपोर्ट में कहती है कि मानवाधिकारों पर पाबंदी से लोकतंत्र लगातार कमजोर हुआ है। मानवाधिकारों पर पाबंदी से लोकतंत्र कमजोर हुए हैं। कोरोना वायरस के आने से कहीं पहले दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र की जड़ें कम हो रही थीं. प्रजाताँत्रिक मूल्यों के लिए काम करने वाली संस्था फ़्रीडम हाउस की बात मानी जाए तो पिछले साल 64 देशों में लोकताँत्रिक मूल्य पहले की तुलना में कम हुए हैं. जब दुनिया के बहुत से देश इस महामारी से निपटने के लिए असाधारण क़दम उठा रहे हैं, तानाशाह और प्रजाताँत्रिक दोनों तरह के देशों में मानवाधिकारों को बड़े स्तर पर संकुचित किया जा रहा है. व्यापार को बंद करना, सामाजिक दूरी को लागू करने पर ज़ोर देना, लोगों को सड़क से दूर रखने और उनके जमा होने पर रोक और कर्फ़्यू लगाने जैसे क़दम इस बीमारी को रोकने के लिए बेशक ज़रूरी कदम हैं लेकिन इस बात के भी गंभीर ख़तरें हैं कि इससे तानाशाही की नई लहर को भी बढ़ावा मिल सकता है.
यह आशंकाएं बिल्कुल भी नजरंदाज नहीं की जा सकती। खासकर भारत में जहां सत्ताधारी पार्टी के एमपी खुल कर घोषणा करते हैं कि 2025 के बाद चुनावों की जरूरत नहीं होगी। सोशल मीडिया पर यह संदेश भी प्रचारित हो रहे हैं कि देश के प्रधानमंत्री का विरोध करना देश का विरोध करना है, या देशद्रोह है, एक संदेश फेल रहा है कि जिस प्रकार चीन और कोरिया जैसे देशों में आजीवन प्रधानमंत्री होते हैं भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए। प्रधानमंत्री की गैर वैज्ञानिक नौटंकी को एक तबके का पूरा समर्थन मिल रहा है। यानी भारतीय फासीवाद अपने साथ एक तबके को साथ लगाने में कामयाब होता जा रहा है। सोशल मीडिया और धरातल पर ऐसी फौज तैयार हो रही है जो कि सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहती। जिन राज्यों में सत्ताधारी पार्टी की सरकारें हैं वहां पर खासतौर से आपतकालीन कानूनों को अपनी पकड़ मजबूत करने, अपने मनपसंदीदा दुश्मन को निशाना बनाने, लोकतांत्रिक, क्रांताकारी संघर्षों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
मजदूर वर्ग की मुक्ति पैकेजों से नहीं क्रांति से ही होगी।
गुनाह पासपोर्ट का था दरबदर राशनकार्ड हो गए।
यह लाईन आज कल फेसबुक पर बहुत चल रही है। कोरोना को देश में लाने के लिए मुख्य रूप से वह तबका जिम्मेदार हो जो विदेशों में अपने ऐशो-आराम, कारोबार, काम-धंधो के लिये आना जाना करता है। सबसे पहले देश में कोरोना का मरीज जो पाया गया वह केरल में था जो विदेश से लौट कर आई युवती थी। कनिका कपुर ने भी इस मामले में खूब वाही-वाही लूटी। इसके बाद बहुत सारे विदेश से लौट कर आने वालों ने इस भारी तबाही को जन्म दिया। लेकिन इस का सबसे अधिक खामियाजा मजदूर तबके को भुगतना पड़ रहा है। यह वही मजदूर तबका है जो कि केरल से लकर कन्याकुमारी तक, रेगिस्तान से लेकर समुद्र तट, हड्डियां जमा देने वाली रोहतांग, लेह-लद्दाख की बर्फ तक की परवाह न करते हुए बड़ी ढांचा निर्माण परियोजनाओं से लेकर फैक्ट्रियों तक में कार्य कर रहा है। इसने आठ-आठ लेन की सड़के बनाई हैं, पहाड़ों का सीना चीर रेल लाईने बिछाई हैं, सूरंगे खोदी हैं, गगनचूंबी इमारते बनाई हैं। यह वही वर्ग हो जो देश की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है। लेकिन इस गरीब लाचार मजदूर तबके के खिलाफ शासक वर्ग और मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के एक तबके व गोदी मीडिया ने जो आरोप लगाया, उनको दोषी ठहराया, उनको गालियां दी वह देश के इतिहास में काले धब्बे के तौर पर अंकित रहेगा। सारा दोष उस गरीब तबके पर मढा जा रहा है जो इस रोग से बहुत दूर था। जो दो वक्त की रोटी के लिए पूरे देश में दरबदर ठोकर खाने पर मजबूर है। हजारों-लाखों लोग देश में सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर, चोरों की तरह अपने घरों मे जाने के लिए मजबूर हुए।
बीमारी चाहे विदेशों से आई हो और देश के उच्च मध्यमवर्ग, शासक जमातों के जरिए आई हो। लेकिन इसका शिकार सबसे अधिक देश का गरीब मजदूर, किसान वर्ग प्रभावित होगा। क्योंकि अमीरों के लिए एक से एक हस्पताल है, स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, वह अपने बंगलों में कंवारिंटाईन मेनटेन कर सकते हैं। एक स्थानीय अधिकारी कहते हैं कि गांव में लोग अपने घरों में कंवारिनटाईन नहीं रह सकते, सभी घरों में एक ही बाधरूम और टायलेट होता है, यहां तक की कभी-कभी पूरा परिवार एक ही तौलिये और साबून का इस्तेमाल करता है। तो ऐसे मरीजों को गांव में कैसे रखा जाए। बात जायज है और पूरे देश की ग्रामीण आबादी के लिए जायज है। कोरोना वायरस सर्वाधिक निशाना उन लोगों को बनाता है जिनका इम्यून सिस्टम या फिर रोग प्रतिरोध प्रणाली कमजोर होती है। जाहिर सी बात है कि जिस देश की 37.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीती हो तो उस देश के लोगों का इम्यून सिस्टम कैसे मजबूत हो सकता है।[5] इस लिये कोरोना का सबसे बड़ा शिकार यही वर्ग होगा।
जिस तरह से लाकडाउन के बाद भारी संख्या में असंगठित क्षेत्र के मजदूर दोबारा से अपने-अपने गांव वापिस गए हैं वहां पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था इनके बोझ को नहीं उठा पाएगी। अगर गांव में काम होता तो यूपी, बिहार, झारखंड, ओड़िसा, हिमाचल, उतराखंड जैसे राज्यों के लाखों-करोड़ों लोग अपना घर-बार छोड़कर शहरों की ओर पलायन नहीं करते। यही लोग दोबारा गांव में जाएंगे तो वहां पर किस तरह का रोजगार इनको मिलेगा। वहां पर इनको किसी तरह का रोजगार हासिल नहीं होगा। जो कुछ पैसा इन्होंने कमाया था वह एक-दो महीने से अधिक इनके परिवारों का पेट नहीं भर पाएगा। बहुत सारे लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि सरकार को इनके लिए सही पैकेज घोषित करना चाहिए। जो कंपनिया या फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं, उत्पादन ठप पड़ गया है, ठेकेदार के पास मजदूर हैं उनके लिए सरकार प्रबंध करें। लेकिन किसी भी तरह का सरकारी पैकेज इनको स्थाई राहत नहीं दे सकता। बीपीएल परिवारों को दो माह का राशन, कई राज्यों में दो या तीन महीने फ्री गैस सप्लाई या फिर 500 या 2000 हजार रुपये की किस्तें करोड़ों आबादी का पेट नहीं भर पाएगी। कोरोना से ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार होकर मरेंगे। बिना पैसे स्वास्थ्य सुविधाएं खरीद पाना इस करोड़ों की आबादी के लिए दूर की कोड़ी है। इस लिए कोई भी राहत पैकेज केवल और केवल पूंजीपतियों, ठेकेदारों तक ही सिमित होगा। आरबीआई ने रिवर्स रेपो रेट या कहें बैंकों को दिये जाने वाले कर्ज पर ब्याज घटा कर जो पैंतरा चला है उस से केवल बड़ी कंपनियों, उद्योगों को कर्ज मिलेगा और आने वाले समय में वह एनपीए में तब्दील होना तय है तो बचे-खुचे चार बैंक भी दिवालिया होने की तरफ धकेल दिये गये हैं।
भारत सरकार ने कोरोना से लड़ने के लिए आंकड़ों का खेल खेलते हुए बजट के आंवटनों को फेरदबल कर 15 हजार करोड़ खर्च करने का ऐलान किया है वहीं केरल इसके लिए 20 हजार करोड़ खर्च करेगा। इसमें अमेरिका ने भी अपना योगदान डालते हुए 28 मार्च को 29 लाख डॉलर (21 करोड़ 71 लाख रुपये) देने का आश्वासन दिया है। यह वह राशी है जो अमेरिका ने अपने व्यापारिक हितों के मद्देनजर 64 देशों को जारी की है। अमेरिका 2740 लाख अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता करेगा। हालांकि इसमें कहा गया है कि इमरजेंसी हेल्थ एंड ह्यूमेन फंडिंग उन देशों को दी जा रही है जो इस वैश्विक महामारी की सबसे ज्यादा चपेट में हैं। 6 मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोरोना वायरस प्रेपेयर्डनेस एंड रेस्पोन्स सप्लीमेंट एप्रोप्रिएशन एक्ट पर दस्तखत किए हैं, जिसमें महामारी से लड़ रहे दुनिया भर के देशों को 1.3 बिलियन (130 करोड़) अमेरिकी डॉलर देने का वादा किया गया है। वहीं चीन ने भी एलान कर दिया है कि विपत्ती के समय उसकी मदद करने वाले 19 देशों को कोरोना से लड़ने के लिए चीन भरपुर मदद करेगा। भारत भी चीन की मदद की सूचि में शामिल है।[6] चीन ने सात अप्रैल को कोरोना वायरस के संक्रमण के इलाज में चिकित्साकर्मियों के इस्तेमाल में आने वाले निजी सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की 1.7 लाख किट भारत को सोमवार सौंप दी हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह जानकारी देते हुए बताया कि चीन ने भारत को कोरोना संकट से निपटने के लिये सहायता के रूप में ये किट दी हैं।[7] इसके अलावा चीन ने 18 अफ्रीकी देशों की भी कोरोना से लड़ने के लिए मैडिकल जरूरतों की आपूर्ति की है।[8] चीन और अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों को दी जारी यह राहत आने वाले समय में उन देशों के प्राकृतिक संसाधन हड़पने के ही काम आएंगी।
करोड़ों करोड़ मेहनतकश आबादी को पैकेज की नहीं क्रांति की जरूरत है। अपने-अपने गांव गए लोगों को केवल और केवल कृषि ही इतना रोजगार मुहैया करवा सकती है इस लिए उन तमाम भूमीहिन लोगों को जो कंगाली के चलते शहरों की तरफ पलायन कर मजदूर बने थे, उनके लिए एक मात्र रास्ता खेतिहर क्रांति ही बचती है। भूमिसुधार और उन लोगों को भूमि वितरण से ही रोजगार प्राप्त होगा बाकि सब पैकेज एक और धौका साबित होंगे।
स्टे होम से दुनिया को सुरक्षित नहीं किया जा सकता –
यह जंग आउट ऑफ होम ही लड़ी जाएगी।
जिस तरह से देश के शासक वर्ग ने लोकडाउन और कर्फ्यू का हुकम दिया, कोरोना से लड़ने के नाम पर स्टे होम का नारा दिया तो मेहनतकश की मुक्ति की बात करने वाले बहुत सारे संगठन, पार्टियां, एनजीओ, सामाजिक संगठन, छात्र-नौजवान संगठन सरकार के सुर में सुर मिलाते नजर आए। अपने-अपने कार्यकर्ताओं को घरों में रहकर दुनिया को बचाने की बाते करते नजर आ रह हैं। यह फासीवाद के चंगुल में फसने वाला नारा है। मेहनतकश की मुक्ति के लिए जी-जान लगाने, प्राणों तक का न्यौछावर करने की क्रांतिकारी भावना के खिलाफ नारा है। दुनिया भर में महामारियां पहले भी आई हैं चाहे वह प्लेग के रूप में थी या साम्राज्यवाद प्रायोजित अकाल के दौरान फैली महामारियां थी। उस समय भी क्रांति और जनता के लिए जान हथेली पर रख कर निकलने वाले क्रांतिकारियों से दुनिया में उदाहरण भरे पड़े हैं। कभी भी क्रांतिकारी शक्तियां महामारियों या जान की डर से जनता में जाने से नहीं हिचकी हैं। क्रांतिकारी ताकतों ने हमेशा जनता के लिए जान न्यौछावर की है। आज कोरोना से सावधान रहने की जरूरत हैं, बचने की जरूरत है लेकिन घर पर बैठ कर तमाशा देखना बेहद शर्मनाक है। इस दौरान जब देश की जनता इस महामारी से जूझ रही है, देश की सर्वाधिक आबादी पर खतरा मंडरा रहा है तो उस समय यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम उसके पास जाएं, उसकी सेवा करें, उसके लिए रोटी-कपड़ा-मकान-दवा का इंतजाम करे। क्योंकि सरकार के भरोसे बैठ कर यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि वह यह सब पैकेजों से पूरा कर देगी। आज फिर से जो भूमिहीन गांव में वापिस जा रहे हैं उनके लिए भूमि की समस्या को उठाया जाए। सरकारी गौदामों ने अनाज भरा पड़ा है, दवाएं भरी पड़ी हैं, बड़े-बड़े व्यापारी, जमींदार जमाखोरी कर मुनाफा कमाने के लिये तैयार बैठे हैं। सरकार अपने साम्राज्यवादी आकाओं के आगे झूक कर उनके लिए दवा, स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों के निर्यात पर से पाबंदी हटा रही है। साम्राज्यवादी देश फिर हमारे संसाधनों का दोहन कर रहे हैं और दलाल शासक वर्ग उनके आगे नतमस्तक है। ट्रंप की एक धमकी के आगे उसने घुटने टेक दिये हैं। यह सब उपकरण हमारे देश के लोगों के लिए जरूरी हैं।
दुनिया के बड़े-बड़े देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां 44 से ज्यादा वैक्सिनों पर अरबों रुपये खर्च कर शोध कर रही हैं। आने वाले समय में साम्राज्यवाद इस तरह की वैक्सिनों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेगा। जो सबसे पहले वैक्सिन बनाएगा वह अकूत मुनाफे के लिए इसको तैयार कर रहा है। जनता की जान से उसका कोई लेना देना नहीं है। जब तक वैक्सिन नहीं आ जाती तब तक बहुत सारी दवाएं इस पर कार्य कर रही है। हमें लड़कर सुनिश्चित करवाना चाहिए कि वह दवाएं जनता को फ्री में मिलनी चाहिए। निजी कंपनियों को कोरोना टेस्टिंग की अनुमति देना, बड़े-बड़े निजी कोरोना अस्पताल खोलने की अनुमति देना यह सब सरकार अपने पूंजीपति दोस्तों का मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए कर रही है। हमें इस बात के लिए लड़ना चाहिए कि स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरह से सरकारी होना चाहिए। कोरोना के टेस्टों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और पूरी तरफ मुफ्त होनी चाहिए। स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों की सप्लाई की गारिंटी होनी चाहिए। बड़े पैमाने पर निजी फार्मा कंपनियों को अपने हाथ में लेकर एंटी वायरल दवाओं का उत्पादन करना चाहिए खासतौर पर क्लोरोक्विन का, क्योंकि यह दवा बेहद सस्ती दवा है, जिस की कीमत एक चाय के कप के बराबर है। भारी मात्रा में गैर जरूरी उत्पादन को रोक कर वेंटिलेटर व अन्य स्वास्थ्य मशीनों का उत्पादन होना चाहिए। तमाम निजी होटलों, रेस्तराओं, शापिंग मालों को जो बंद पड़े हैं अस्पतालों में तब्दील किया जाना चाहिए। लोगों का इम्युन सिस्टम तभी मजबूत हो सकता है जब वह गरीबी रेखा से उपर उठेंगे, और इम्युन सिस्टम की कमजोरी तमाम बिमारियों की जड़ है। इस लिये यह लड़ाई आखिर में जाकर मजदूर-किसानों की जंग के रूप में तब्दील होती है। जब तक उसक पास अपनी जमीन और फैक्ट्रियों पर उसका अपना अधिकार नहीं होगा वह अपने लिए स्वास्थ्य, रोटी-कपड़ा-मकान हासिल नहीं कर सकता। पूंजीवाद द्वारा स्थापित विकास का माडल ध्वस्त हो चुका है। जन विकास के वैकल्पिक माडल को पेश करने का समय है। इस लिये यह लड़ाई घरों से बाहर ही लड़ी जाएगी। इस लिए सरकार द्वारा का जा रही तानाशाही की रिहर्शल का मुल्यांकन बहुत सावधानी से करने की जरूरत है, उसके शब्दों के जाल में फंसने से बचना है और इस महामारी के दौर में क्रांति की रणनीति के तहत हमें अपनी कार्यनीति को बनाना होगा।
तुरंत हमें क्या करना चाहिए
1. कोरोना के नाम पर की जा रही फासीवाद की रिहर्सल का पर्दाफाश करना चाहिए।
2. कोरोना के नाम पर मजदूरों, धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती सांप्रदायिक भावना के खिलाफ लोगों को जागरूक करना चाहिए।
3. कालाबाजारी, जमाखोरी करने वालों, महंगाई के खिलाफ लोगों को लड़ना चाहिए।
4. घरों की तरफ जाते मजदूरों की मदद के लिए हर संभव साहयता करनी चाहिए। आस-पास के उद्योगिक क्षेत्रों के मजदूरों की मदद करें।
5. सभी के लिए फ्री राशन, दवा के लिए लड़ना चाहिए।
6. स्वास्थ्य सुविधाओं के राष्ट्रीयकरण की मांग की जानी चाहिए।
7. कोरोना के नाम पर फैलने वाली अफवाहों की बजाए वैज्ञानिक चेतना बढ़ानी चाहिए।
8. बेरोजगार मजदूरों, नौजवानों के लिए रोजगार और जमीन की मांग की जानी चाहिए।
9. किसानों की फसलों के उचित मूल्य मिलने के लिए संघर्ष करना चाहिए।
10. शिक्षण संस्थानों को सैनिटाईज कर सुचारू रूप से चलाने के लिए मांग करनी चाहिए।
11. वलंटियर टोलियां बनाकर आम जनता की सहायता के लिए आगे आना चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं।)
[1]https://www.google.com/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=web&cd=33&cad=rja&uact=8&ved=2ahUKEwjNnquWjtPoAhX1yzgGHYtiA0IQie8BKAEwIHoECAEQAg&url=https%3A%2F%2Fgoogle.com%2Fcovid19-map%2F%3Fhl%3Den&usg=AOvVaw1mIAQj3h-rnSLqZzzE0u74 [2] https://economictimes.indiatimes.com/topic/UN-Department-of-Economic-and-Social-Affairs [3] https://fortune.com/2020/01/17/china-gdp-growth-2019-weakest-30-years-trade-war/ [4] https://www.bbc.com/hindi/international-52102995 [5] 2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे बीपीएल जनसंख्या 21.9 प्रतिशत यानी 27 करोड़ थी जबकि 2004.05 में यह संख्या 37.2 प्रतिशत यानी 40 करोड़ 70 लाख थी। आंकड़ों के फेरबदल से 2011 में बीपीएल संख्या घटाई गई थी। https://www.google.com/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=web&cd=2&cad=rja&uact=8&ved=2ahUKEwjsqsf14tXoAhV1yjgGHUnBCVQQFjABegQIDBAE&url=http%3A%2F%2Fplanningcommission.nic.in%2Fnews%2Fpre_pov2307.pdf&usg=AOvVaw2dpPuK74jB6shw9ILd9nRH [6] https://www.jagran.com/world/china-coronavirus-china-will-help-india-prevent-corona-virus-infection-20135166.html [7] https://www.livehindustan.com/national/story-coronavirus-lockdown-china-donates-170000-ppe-kits-to-india-to-help-fight-covid19-3133362.html [8] http://www.xinhuanet.com/english/2020-04/07/c_138952553_2.htm
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