ढाईयां घड़ियां दे प्योकिये । (अढाई घड़ी का मायका ) - अनुवाद दुर्गेश नंदन
- ahtv desk
- 18 नव॰ 2019
- 8 मिनट पठन

हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य भागों में भी आज से पंच भीषम के व्रत , मेले शुरु हुये । गांव-गांव घरों, मंदिरों में पूजा का मडंप बनाकर दीये जलाकर अगले पांच दिनों तक महिलाओं द्वारा व्रत , पूजा-अर्चना की जायेगी । भजन गाये जायेंगे और एक लोककथा "ढाईयां घड़ियां दे प्योकिये " सुनी -सुनाई जायेगी । मुझे यह कथा अकादमी द्वारा प्रकाशित लोककथाओं की पुस्तक "कथा सरवरी भाग 2 में हिमाचली भाषा में पढ़ने को मिली जिसका हिन्दी अनुवाद मैं आपसे साझा कर रहा हूं ------
किसी गांव में एक विधवा औरत अपनी बेटी संग रहती थी । गरीब थीं,मेहनत मजदूरी करके किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाती थीं । एक बार कार्तिक मास में पंच भीषम के व्रत -तयौहार शुरु हुये तो उनकी एक पड़ोसन ने दोनों को एक-एक रोटी पकाकर देने शुरु कर दी । पड़ोसन एक रोटी बड़ी पकाती थी एक छोटी।अपनी ओर से मां के लिये बड़ी और बेटी के लिये छोटी । पर मां खुद छोटी रोटी खा लेती थी और बेटी को बड़ी रोटी दे देती थी । एक दिन मां मेहनत-मज़दूरी करने के लिये घर से बाहर गई हुई थी तभी पड़ोसन बेटी के पास रोटियां दे गई । बेटी को भूख लगी थी उसने तय किया कि एक रोटी खा लेती हूं एक मां के लिये रख लेती हूं । खाते समय उसने सोचा कि मां थकी-हारी लौटेगी,भूखी होगी सो उसने छोटी रोटी खा ली और बड़ी वाली मां के लिये संभाल कर रख ली । मां घर लौटी तो बेटी ने रोटी मां को दे दी । रोटी देखकर मां बोली- आज तो पड़ोसियों ने बड़ी-बड़ी रोटियां पकाई हैं । बेटी ने उत्तर दिया-रोटियां तो रोज की तरह ही पकाई हैं पर मुझे भूख लग पड़ी थी अतः मैंने छोटी रोटी खा ली बड़ी तुम्हारे लिये रख ली ।मां ने उसकी बात सुनी तो कहने लगी-तुमने मेरी रोटी क्यों खाई । मुझे मेरी रोटी दे । मैंने वही रोटी खानी है । कहती वह जिद करने लगी । बेटी बोली - मां तू रोज़ छोटी रोटी खाती है । आज मैंने सोचा तुम काम से थकी हारी आओगी ,भूख लगी होगी अतः तुम्हारे लिये बड़ी रोटी रख ली । पर मा नहीं मानी । उसने एक ही रट लगा दी - तू मेरी रोटी दे । तू मेरी रोटी दे । बेटी ने लाख समझाया पर व्यर्थ,सारी रात मां यही बड़बड़ाती रही न खुद सोई न बेटी को सोने दिया । सुवह हुई तो वह बेटी के पीछे-पीछे चलती यही कहती रही- मेरी रोटी दे । मेरी रोटी दे । मां की रट देख बेटी खीझ गई और उससे पीछा छुड़ाने को घर से भाग गई ।मां ने उसे भागते देखा तो वह भी -मेरी रोटी दे ,मेरी रोटी दे ,कहती पीछे-पीछे भागने लगी । लड़की दौड़ते-दौड़ते एक जंगल में पंहुच गई । मां भी रोटी-रोटी कहती पीछे लगी रही । जंगल में लड़की ने देखा कि बड़े से वृक्ष के तने में खाली जगह है ,उसने पीछे मुड़कर देखा मां अभी दूर थी और उसे नहीं देख सकती थी सो वह उस जगह में छुपकर बैठ गई । मां रोटी दे-रोटी दे कहती पेड़ के पास से आगे निकल गई । बेटी ने चैन की सांस ली पर उस जगह से बाहर नहीं निकली ताकि मां मुड़कर देख न ले । वह जिस जगह छुपकर बैठी हुई थी उस जगह से एक राजा शिकार खेलते हुये निकला । अंगरक्षक साथ थे उनमे से किसी ने लड़की को वहां बैठे देख लिया और राजा को खबर कर दी । राजा पेड़ के पास पंहुचा ,लड़की को देखा और उसके रुप पर मोहित हो गया । उसने लड़की से पूछा - तुम कौन हो और यहां छुपकर क्यों बैठी हो ? लड़की डरते-डरते बोली- मैं रास्ता भूलकर इस जंगल में पंहुच गई हूं और आपको आता देख इस जगह पर छुप बैठी थी । तुम किस की लड़की हो और कहां जा रही हो , राजा ने पूछा तो लड़की चुप रही । राजा ने सवाल दोहराया तो वह बोली- मुझे नहीं पता मेरे मां बाप कौन हैं । मैं अनाथ हूं । राजा ने उसे वहां से बाहर निकाला और अपने साथ महल में ले गया और उसे अपनी रानी बना लिया । लड़की रानी बनकर बड़े ठाठ से रहने लगी ,धीरे-धीरे वह अपनी मां को भूल गई ।
एक दिन महल की महरियां बाबड़ी से पानी भरकर लाईं तो आते ही रानी से बोलीं - आज हमने बाबड़ी के पास एक पागल औरत देखी जो हर समय यही बड़बड़ाती जा रही थी- मेरी रोटी दे । मेरी रोटी दे । रानी ने सुना तो पांव तले जमीन खिसक गई । उसे डर लगने लगा कि यहां सबको सच्चाई पता चल गई तो क्या होगा ।चिन्ता में डूबी रानी ने एक उपाय सोचा । जब महरियां वहां से चली गई तो उसने अपनी खास सेविका को बुलाया और कहा - 'बाबड़ी के पास एक पागल औरत घूम रही है । तूम अगर किसी तरह सबसे नज़र बचाकर उसे मार दो और उसका सिर काटकर मेरे पास ले आओ तो मैं तुम्ह़े मालामाल कर दूंगी '। लोभ पाप का मूल है क्या कुछ नहीं करवाता । सेविका लालच में आ गई और मान गई । रानी ने उसी वक्त कुछ धन और आभूषण सेविका को दिये और बात को गुप्त रखने की ताकीद दी । सेविका उसी समय वहां से निकल गई और पांच छह घंटे बाद उस बुढ़िया का सिर काटकर छुपाकर ले आई । रानी ने कहे अनुसार, उसे खूब सारा धन देकर विदा किया और मां का सर एक पटारु में डालकर ढक्कन बन्द कर अपने शयनकक्ष के ताक पर रख दिया ।
दिन बीते, सप्ताह बीते । एक दिन राजा रानी के शयनकक्ष में आया । उसकी नज़र ताक पर रखे पटारु पर पड़ी । पहले तो उसने अनदेखा किया पर तभी उसे लगा कि पटारु हिल रहा है तो वह उसे गौर से देखने लगा । उसने रानी से पूछा - रानी !यह पटारु में क्या कैद कर रखा है बड़ा उछल रहा है । रानी बोली- राजा जी ! मैंने कुछ भी कैद करके नहीं रखा है । शायद चूहे होंगे । राजा का मन नहीं माना । उसने पटारु उतारा और उसका ढक्कन खोल दिया ।ढक्कन खुलते राजा ने देखा पटारु में एक सोने का मोर उटक रहा था । राजा बड़ा हैरान हुआ । उसने पूछा- रानी यह सोने का मोर कहां से आया । रानी ने बताया-यह मोर मेरे मायके वालों ने भेजा है '। रानी की बात सुनकर राजा बड़ा हैरान हुआ और कहा - रानी! तूने तो बताया था कि तुम अनाथ हो । यह अचानक मायका कहां से आ गया ? रानी बोली-उस दिन में डरी हुई थी । पता नहीं क्या- क्या बोल गई थी । आप ही सोचो मैं क्या विन मायके होऊगीं । राजा ने कहा- जो तुम्हें सोने का इतना सुंदर मोर भेज सकते हैं वो स्वयं कैसे होंगे । मैं उन्हें देखना चाहता हूं ,मिलना चाहता हूं । रानी मान गई और बोली-ठीक हैं मैं आपको अपना मायका दिखा दूंगी ।
उन्हीं दिनों पंच भीषम के व्रत शुरु हो गये और रानी दूसरी औरतों के साथ जरेड़(जंगली वेर)के झाड़ों की पूजा करने गई । रानी ने जरेड़ी को पानी ,अच्छत,फूल,द्रुब,टीका,प्रसाद चढ़ाया और मन ही मन कामना करने लगी - हे जरेड़िये ,परमेसरिये ! मुझे अढाई ध्याड़े(दिन)के लिये मायका दे दे ,ताकि मैं राजा को दिखा सकूं। मेरी लाज़ रख जरेड़िये!लाज रख । कामना करती रानी बापिस महल में आ गई । उस रात रानी को स्वपन आया कि जरेड़ी से एक दिव्यजोत कन्या निकली और कहने लगी - रानी! तू राजा से कह दे कि उत्तर दिशा में सातवें जंगल में मेरा मायका है । अपने सारे लाव-लश्कर को ले चलो और और अपना ससुराल देख लो । वहां सारा प्रबंध होगा पर हां वहां अढाई ध्याड़े से एक भी पल ज्यादा मत रुकना और यह बात किसी को मत बताना नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी । इतना कहकर दिव्यजोत कन्या उसी जरेड़ी में लोप हो गई । रानी की आंख खुल गई ,पास्सै बदलते सुवह हो गई ।
अगले दिन राजा नहा-धो तैयार हुआ तो रानी ने कहा - राजा जी! आप मेरा मायका देखना चाहते थे तो चलिये अपना सारा लाव लश्कर साथ ले चलिये, मैं आपको अपना मायका दिखाती हूं । राजा खुशी-खुशी तैयार हो गया और अपने सारे लाव लश्कर को साथ लेकर रानी संग चल पड़ा ।
चलते-चलते उन्होंने ने छह जंगल पार कर लिये तो राजा ने रानी से कहा- तुम्हारा मायका और कितना दूर है ?मैं थक गया हूं । अब और नहीं चला जाता । रानी ने उतर दिया - अब तो सारा रास्ता पार कर लिया , अगले जंगल में मेरा मायका है । वहीं चलकर विश्राम करेंगे ।
राजा-रानी अपने लाव लश्कर के साथ सातवें जंगल में पंहुचे तो राजा हैरान रह गया ।वहां बड़े-बड़े महल बने थे ,हज़ारों नौकर काम में डटे थे । राजा और उसके लाव लश्कर की खूब खातिरदारी होने लगी । सबकी थकान पल भर में उतर गई सब मस्त हो गये । उनको वहां आये दूसरा दिन हुआ तो रानी ने बापिस लौटने की रट लगा दी । राजा ने कहा - रानी ! मैं पहली बार अपनी सुसराल आया हूं । तुम भी इतने समय बाद अपने मायके आई हो । जल्दी क्या है? कुछ दिन यहीं रुकते हैं फिर चलेंगे । रानी ने कहा- राजा जी ! ज्यादा दिन कहीं भी रुकना नहीं चाहिये क्योंकि बुजुर्ग कहते हैं -" अज्ज परोहणा,कल पच्छा,कनें परसूं घरे जो गच्छा" ।हम अभी बापिस चले जायेंगे । राजा उसकी बात मान गया और बापिस लौटने का हुक्म दे दिया ।
तीसरे रोज़ सुवह ही लाव लश्कर बापिस लौट चला । राजा का नाई बड़ा चालाक था । उसने राजा की पगड़ी और कपड़ों की छड़(बांस से बनी टोकरी)वहीं रहने दी और अपनी गुच्छी लटका कर चल पड़ा ।चलते-चलते जब वे काफी दूर निकल आये तो नाई ने राजा से कहा - महाराज! आपकी पगड़ी और कपड़ों की छड़ तो वहीं रह गई है । मैं बापिस लौटकर जाता हूं और उनको ले आता हूं '।रानी तुरंत बोली-अरे कपड़ों के लिये इतनी दूर लौटोगे । रहने दो । नाई ने तुरंत कहा - महाराज!पगड़ी । पगड़ी की बात सुन राजा ने नाई को एक घोड़ा दिया और कहा- 'हम चलते हैं तुम पगड़ी और कपड़े ले आओ' । नाई घोड़े पर बैठा और बापिस लौट चला । रानी को धुक-धुक लग पड़ी कि अब क्या होगा । नाई जब उस जगह पंहुचा तो उल्लुओं की तरह इधर-उधर देखने लगा । वहां न तो महल थे न नौकर-चाकर न कोई आदमी न कोई आदमजात । चारों और झाड़ियां थी जूठे पत्तल विखरे पड़े थे और कुत्ते उन्हें चाट रहे थे हां राजा की पगड़ी और कपड़ों की छड़ वहीं पड़ी थी । नाई ने दोनों चीजें उठाई और घोड़े पर चढ़कर राजा के पास लौट चला । जब वो वापिस पंहुचा तो राजा का काफिला बापिस पंहुच चुका था । उसने पगड़ी और कपड़े राजा के पास दिये और कहा- महाराज! 'आपकी ससुराल तो वहां रही नहीं । अगर कपड़े और पगड़ी वहां नहीं पड़े होते तो जगह पहचाननी भी मुश्किल हो जाती '। राजा बड़ा हैरान हुआ और रानी से पूछने लगा - रानी यह क्या हुआ ? रानी बोली-'मुझे क्या पता ? मैं तो आपके साथ ही वापिस आ गई थी '।राजा बोला-नहीं रानी !तुझे सब पता है । तू मुझे सारा भेद बता । रानी ना-नुकर करती रही पर राजा जिद करने लगा । थक हार कर रानी ने कहा - राजा अगर भेद ही सुनना है तो मैं बता देती हूं पर बताने के बाद मैं ज़िंदा नहीं रहूंगी । राजा बोला-'तुम्हारी तुम जानो । मुझे तो सारी बात जाननी है '।
रानी ने शुरु से लेकर अंत तक सारी बात सिलसिलेवार सुना दी । ज्यों ही बात पूरी हुई उसके प्राण निकल गये और वह धड़ाम करके गिर पड़ी । राजा सारी बात सुनकर और रानी का मृत शरीर देखकर सुन्न रह गया ।
हिन्दी अनुवाद-दुर्गेश नंदन ।
हिमाचली पहाड़ी में संकलन लेखन - शेष अवस्थी । (पपरोला, कांगड़ा)
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