“सुकेत सत्याग्रह का पहला चरण” - तुलसी राम गुप्ता
- GDP Singh
- 1 फ़र॰ 2020
- 2 मिनट पठन
राजा के जुल्मों से तंग होकर रियासत सुकेत के दैरडू गांव (वर्मतामन सुंदरनगर तहसील के अंतर्गत) के मिया रत्न सिंह के नेतृत्व में कार्तिक 1981 तदानुसार अक्तुबर 1924 को सत्यग्रह आरम्भ हुआ। सर्व श्री हिरदा राम, मनोहर, लटूरिया, जैखूं, साधुराम, कोली, आदि इसके सक्रिय कर्णधार थे।

जहां बल्ह और डैहर में आग भड़क रही थी वहीं करसोग से श्री थलूराम, पांगना से सर्व श्री लोहारुराम, दर्शनराम, धरनीधर, सितलुराम गुप्त, थांथूराम शर्मा व ल्हराश से श्री कपूरु राम राजपुत आदि ने भी इस आंदोलन को तेज किया।
इन लोगो ने जनता को जागृत किया और हजारों लोगों ने इकट्ठे होकर ढोल नगाड़े बजाते हुए सुंदरनगर की ओर प्रस्थान किया।
9 पौष 1901 विक्रमी संवत (23 दिसंबर 1924 ) को जैदेवी पहुंचे। वहां स्यांजी के लोगों ने इन्हे भोजन करवाया। आगे बढ़ते हुए चाम्बी में बल्ह व डैहर के लोगों ने इनका खूब गाजे बाजे के साथ स्वागत किया।
वहां की जनता तीन-चार मील लम्बे इस समूह को देख कर हैरान थी। यह जन समूह पुराना बाजार सुंदरनगर होते हुए ‘खरीहड़ी’ ला. सिधुराम गुप्ता राजा के प्राईवेट सेकरेटरी के घर के पास पहुंचे। वहां पहुंचने पर उग्र आंदोलन कारियों ने ला. सिधुराम के घर के छप्पर के चक्के उखाड़ दिए। मगर ला.सिधुराम ने समय के हालात को देखते हुए जनानी वस्त्र पहन कर वहां से छुपकर भाग जाने से अपनी जान बचाई। उसके न मिलने से उसके घर का कुछ सामान भी जला दिया।
आंदोलन को कुचलने के लिए राजा लछमण सेन ने पंजाब के गवर्नर से सहायता मांगी। वहां से (डीएस मुकंजी) गोरखों और पिशावरी सिपाहियों को लेकर आया। वह इन्कलाबियों को धमकाने लगा। (उस समय आंदोलनकारियों को इंकलाबी कहा जाता था।) उस समय श्री कपूरू इंकलाबी ने मुकंजी के सिर पर डंडा दे मारा। मुकंजी व सेना घबरा गई। उसने सेना को अपना बचाव करने का आदेश दिया और अपनी सहायता के लिए धर्मशाला से और सेना मंगवाई। वहां से कर्नल मिचिन सीआईई, गोरे व गोरखे सिपाहियों व भारी मात्रा में गोली बारुद लेकर सुंदर नगर पहुंचा। भोजपूर में सेना ने मोर्चा सम्भाल लिया।
मियां रत्न सिंह ने इंकलाबियों को निहथ्य होने को कहा।
सेना ने आंदोलन कारियों को चुप रहने पर मजबूर करके मिंया रत्न सिंह व उसके कुछ साथियों तथा करसोग तहसील के ला. थलूराम, लोहारुराम, दर्शनराम, सीतलुराम, थांथीराम, धरनीधर, कपुरु आदि 53 व्यक्तियों को कैद कर लिया। 49 व्यक्तियों पर मुकदम्मा चलाया गया। 40 नेताओं को 2 साल से 6 साल तक की कैद और 100 रू तक का जुर्माना किया गया। यह सजा डैहर पुल पर सुनाई गई।
(उस समय रुपया 1 तोला चांदी का होता था) जिन लोगों को जेल की सजा सुनाई गई उन्हें पहले जालंधर जेल ले जाया गया वहां से लायलपूर से मुलतान, मुलतान से रावलपिंडी, की जेलों में रखा गया।
जिस-जिस की भी सजा पूरी होती गई, उसे रिहा करते गए और 30.05.1985 विक्रमी संवत (14 सितंबर 1928) के रात 12 बजे तक सभी कैदी छोड़ दिए गए।
इस प्रकार यह आंदोलन सफल तो न हो सका पर अपनी गहरी पैठ छोड़ गया।
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